Sunday 29 November 2015

hnsa jaye akela

विगत को आज में नही ल सकते , दोनों अलग है 
बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे  की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ थे, पीछे एक और बाड़ी थी, मुनगे के पेड़ के पास था, सेमल का पेड़, कबसे उसके कापसी उड़ते लाल फूलों को मैंने घर-बाहर उड़ते देखा था, बहुत अच्छा लगता था, इधर-उधर से खेलकर लौटकर बुआजी की गोदी में घुस जाती थी, जब बुआ जी सामने छपरी में अपनी जगह पर बैठकर सबसे बातें करती होती, तो, मई उनके आसपास खेल रही होती थी, हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो खेती करने वालों का था, बाद में आजकल, उन्होंने दुकाने डाल ली है, खेती अब फूल टाइम जॉब नही रहा , हमे लिखते समय हमेशा सभी के जीविका का स्त्रोत जरूर लिखना होगा। इन्ही सच है 
हमारे घर आनेवालों को क्या मिलता रहा होगा, आज कामके लिए कोई नही आता , मजदूरी हम नही दे सकते , घर बनाने में लाखों रूपये लग गए, क्यूंकि, मजदूरी ही लाखो लगी, ये तब नही था , इश्लीए, आज किसान आत्महत्या कर रहे है, वे १५० रूपये रोजी के मजदूर कहा से लए , जबकि धान का मूल्य वंही है 
तब, कृषि जीवन-पद्धति थी, आज बिज़नेस क्लास है, और है, मार्केटिंग, आप आज क्या बेचोगे , लोग रूप और रिश्ते बेच रहे है,
कोई भी मैनेजर है, सिर्फ बेचना है, एक देश जो उत्पादक था, अब बाजार है, खैर 
मेरा बचपन बहुत प्यारा न्यारा था, क्यूंकि , मुझे कोई काम नही करना होता, राजकुमारी जैसी मई सभी के स्नेह की व् आदर की पात्र थी , हमारे घर आनेवाले, मुझे बहुत लाड़ से बतियाते थे। 
पर मई न तो, कभी सिरचढ़ी हो सकी न, ही, अहंकारी , मुझे घी-रोटी खाने में ही संतोष मिल जाता था, अलबत्ता रोज २-३ बजे अपरान्ह को पासके चौक से मई सेव-चिवड़ा लेकर कहती थी, और जब जेब में न रखकर , हाथों में हो रखकर लाती तो, कौवे मुझसे सेव-चिवड़ा चीन लेते, तब वंही बैठकर रह में रोटी-मचलती थी। 
मुझे याद है, मेरा प्रिय सेव-चिवड़ा कौवे कहते तो, मई बहुत खीजती थी, ये लेकिन रोज ही होता था , क्यूंकि, उसे घरतक लेकर खाने का धैर्य मुझमे कहा था, मई रस्ते में कहती, और कौवे रोज मुझसे छीनते थे 
ये सब लिखते समय उस वक़्त की ज्यादा कोई भावना अब नही आ रही , है, क्यूंकि दुनिया ने मुझसे बहुत चीन-छपट्टी की है 
बुआ जी के घर शांझ बहुत अच्छी लगती थी, जब, हमारी कबरई गाय चरकर आती, वो हुलसती हुई आती, और बुआजी, उसके लिए जो ठाँव रखती थी, उसे देती थी, और उसपर हाथ फेरती थी,ये थी गौओं की सेवा , तब गौएँ जब बूढी होती, तब भी हमारे घरके कोठे में रहती थी, मरते डैम तक उन्हें चारा -पानी देते थे, इसके लिए चरवाहा था, जिसे हम भास्कि भासकी की कहते थे। 
बहुत प्यारे दिन थे, सुबह अलसुबह भोर में कौवे बोलते थे, फिर चिड़ियों की चहचहाट होती थी , बसंता सामने सर पर टोकरा लिए आती थी, जो अपने कोठे से गोबर फेकती थी, उसकी कितनी साड़ी जमीं थी, घर उधर और सामने बाड़ी में होती थी, बाड़ी, जन्हा अब बहुत सारी दुकानें है , सोचिये, आज क्या हम गोबर फेंक सकती है, जबकि हमारे पास कुछ नही, उन्सब्के जितना 
एक बार मुझे पोस्टऑफिस में एक आदमी मिला, और मुझसे बोला, आप हट्टा में दारुवाली बाई के यंहा रहती थी, न मैंने आश्चर्य से हाँ कहा , वो, बताने लगा, मेरी बुआ जी के बारे में कि वे कितने बड़े लोग थे, उसीने मुझे बताया की, हमारी बुआ जी के घरसे जो मंदिर बनाया गया था , उसे ५ एकड़ जमीन दान में दी गयी थी ,
ओह, मेरा मुख खुला का खुला रह गया , बुआजी ने ये बात हमसे कभी नही कही थी, कि उनके परिवार से कितना दान दिया गया था , ये बात मुझे उनकी मृत्यु के बरसों बाद पता चली थी 
सोचती हूँ, कितने बड़े थे, वे लोग, जिन्होंने १० कुंए बनवाने से लेकर सभी बड़े दान-पुण्य की बात कभी अपने मुख से नही कही, आजतो, लोग मंदिर में पत्थर लगाकर, अपना नाम लिखना नही भूलते ये भी कि मेरे घर में कह दिया गया था,कि बुआ जी की लाड़ली होकर भी, मुझे उनसे कुछ नही लेना है, और मैंने बुआ जी से एक एकड़ जमीन तक नही ली, लेकिन जिन्हे बुआ जी ने अपनी अथाह सम्पत्ति दी, उन्होंने बुआजी को तड़पा-तड़पा के मार डाले थे 

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