अपने बचपन के वे दिन याद आते है , जब बुआ जी के घर मई अपने ४या ५ वर्ष की उम्र में सामने की छापरी में बैठती थी, एक कोने में जो ऊँची सी बेंच की तरह बनी थी.
वन्ही बैठकर मई अकेली ही , देखती थी, एक तिकोने आकर की बाइस्कोप को, जो कांच की चूड़ियों के टुकड़े, कई आकृति में नज़र आते , वन्ही मैं मगन होकर देखा करती , और उसी में जाने कबतक खोई रहती थी।
शायद वन्ही से मुझे visual, द्रश्य से लगाव हो गया
वन्ही बैठकर मई अकेली ही , देखती थी, एक तिकोने आकर की बाइस्कोप को, जो कांच की चूड़ियों के टुकड़े, कई आकृति में नज़र आते , वन्ही मैं मगन होकर देखा करती , और उसी में जाने कबतक खोई रहती थी।
शायद वन्ही से मुझे visual, द्रश्य से लगाव हो गया
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