Thursday 29 December 2011

bnaras ki byar

मैंने कभी बनारस देखा नही ,बस सुना व् पढ़ा करती थी, शरद के नोवेल व् रविन्द्र की कथा में कुछ झलक पाई थी.
किन्तु कोई राग नही था, महाभारत के कुछ प्रसंगो में बनारस का जिक्र जरुर पढ़ती रही. चंदा मामा व् अन्य पौराणिक कथाओं में भी बनारस के बारे में जाना.फिर भी मेरा रुझान अलाहबाद तक खूब रहा, आना -जाना भी अलाहबाद तक ही हुआ.
भारत रत्न बिस्मिल्लाह्खान का शहनाई वादन पसंद है, तब भी बनारस के बारे में सुनती रही, फिल्मो में भी देखती रही, राजकपूर की फिल्म में बनारस देखा, शयद गंगा जमना में भी रहा हो, जो भी हो नेह अलाहबाद से रहा ,बनारस से उतना नही, अपने भोले शिव की प्रिय नगरी का सान्निध्य यदि, जीवन के इस छोर पर मिलरहा तो, यह विश्वनाथ का मेरे प्रति अनुराग है .मै तो संगम तक ही तक ही अपनी सीमा मानती रही, जीवन के आखिरी पड़ाव के करीब बनारस का बुलावा भी मेरे शिव का उपहार है, वो  जो चाहे वन्ही मंगलमय, की उन्होंने अपनी प्रिय  नगरी से भी परिचय करा दिया.
ये जो बिना शगुन व् गौने की बनारसी बयार बही है, बहुत विश्मित करने वाली घटना है.मेरे नोवेल baaढ़ me बहती हुई लडकी में , नायिका अंत में बनारस जाती है, उसके बाद उसकी हत्या हो जाती है.मेरे अप्रकाशित नोवेल ,लागी नहीं छूटे राम, भी शायद उधर की ही प्रेम कहानी है , जो १८५७ के पूर्व की स्थति का काल्पनिक कथानक है, जिसमे मैंने भोजपुरी लिखी है, जो मुझे नही आती, किन्ही प्रसंगो में. और भी है बनारस........

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