Saturday 29 August 2015

hansa jaye akela...........

हंस हंस 
हंसा जाये अकेला। ....... 
ये मेरा संस्मरण है , अपनी माँ को समर्पित है 
यूँ तो, संस्मरण मेरी प्रिय विधा है 
जब, जिंदगी इतनी उलझी नही थी , मई रोज संस्मरण ही लिखने बैठ जाती थी ,सब कहते , तू अपने अतीत को याद कर उसे जीती है , तो, आगे नही बढ़ पाती , लेकिन मुझे अपने अतीत से शक्ति मिलती थी 
अभी जब तक ये नही लगा की , मुझे जिंदगी के लिए कुछ करना है , मई इन्ही करती रही हूँ,
तो, शुरू करे , वंही से 
मेरे बचपन से, जब, मई कोई डेढ़ दो बरस की थी , और मेरे छोटे भाई कोमल के जन्म के बाद से माँ की गोदी से मेरा रिस्ता छूट रहा था, दो बरस से छोटी मई, माँ से दूर हो रही थी, अकेली रोटी रोती बिसूरती कहा जाती थी , पता है ,छापरी में जो , बड़े बड़े चूल्हे बने हुए थे , उन्ही में राखी रखी राख की ढिन्दी उठाकर खाती थी , तब तक खाती रहती थी , जब तक मई खाते खाते अधमुन्सी नही हो जाती थी, माँ तो काम में लगी रहती थी, मेरी हालत देखकर रोटी रोटी थी , और दीदी आकर मेरे पीठ पर जब मुक्के जड़ती तब, मेरे मुख में भरी राख निकलती थी 
मेरे हाथ-पांव ऐंठ जाते थे , मई रो नही पाती थी,.......... ये हाल देख मेरी छोटी बुआ मुझे अपने साथ ले गयी थी 
अपने गांव हट्टा , तब, मई २ बरस की भी नही थी। ………… 
शेष कल, हट्टा में मेरे बचपन की सुनहरी यादें। ....... 

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