बुआ जी गोदी में उनके गांव पहुंची तो, बड़ी बुआ जी के घर की छपरी में राख से नेता तुरंत तो, टूट गया था, मुझे राख किसी ने तो भी खाने दी होगी, तब
आज भी जब बछड़े -बछिया को भूखे -प्यासे लंग -लंग घूमते देखती हूँ, तो समझती हूँ,उनसे उनकी माँ से विलग कर, उनके हिस्से का दुध दुसरे लोग पी जाते है.
बुआ जी के बड़े से घर आँगन में मेरा बहुत लाड़ प्यार होता , वंहा बहुत सी औरतें, बच्चे मोहल्ले के आते , जिनकी मई छोटी बाई थी, यंहा भी, वंही सम्पन्नता थी, नौकर-चाकर , बनिहार-बूटियार etc
वंही पर बुआ जी एक सौत भी थी, मैंने उसपर, लिखी हूँ, इश्लीए अपनी जिंदगी, या कहे यात्रा पर लिखूंगी
बुआ जी के घर का माहौल अनुकूल था , इतना दुलार और ऐश्वर्या , की राजसी ठाट -बात में पलटी रही
ये नही जानती थी, कि किसी चीज को कैसे बरतना चाहिए, ये पता होता तो, जो आज सम्पति मिली उसका प्रबंधन कर सकती, इतना धन बर्बाद नही होता , और, जीवन में आज अनिश्चितता नही होती
क्यूंकि, हमे पता ही नही था, की जो वैभव या धन-सम्पत्ति है, उसके लिए कितने जतन करने होते है, एक एक पैसे को सम्भालना होता है
इन्ही, तो होता है ,माता पिता के संघर्ष को जब हम नही जानते, तो, जीवन के संघर्ष से अपरिचित रह जाते है
मनमाना खर्च तो, नही करते थे, फिर भी जो उपलब्ध था, जीवन, वो, मध्यम वर्ग से ऊँचा था, अलहदा था , बुआ जी के एक गिलास पानी के लिए भी मुझसे नही कहा जाता था , बिस्तर पर सोने जाते तो, वह भी नौकर बिछाता था , और जब उठते तो, वह बिछौना भी नौकर ही आकर उठाते थे , आज ऐसे पराधीन जीवन की कल्पना बेमानी है ,फिर भी देखती हूँ , मेरा बीटा कुछ रहता है, जैसे मई तब रहती थी, लेकिन, मई एक कळवळी की तरह आज काम करती हूँ, हालाँकि घर में सब-सुख है, लेकिन याद इन्ही पड़ता है, की तब, मई बिलकुल कुछ नही करती थी, सिवाय पढ़ने लिखने के
बुआ की ही नही मोहल्ले भर में सबकी लाड़ली मई , जब, वे जानेंगे की आज कितनी मेहनत करती हूँ, तो, उन्हें क्या ख़ुशी होती होगी
किन्तु, मुझे आज अपने घर ही नही, देश के लिए भी काम करते, बहुत प्रस्सनता होती है
आज इतना ही
कल, बताउंगी, कैसे मई वंहा तिजोरी पर रखे प्सिक्कों को मुट्ठी में भरके ले जाती और, एक खिलौना खरीदती थी
आज भी जब बछड़े -बछिया को भूखे -प्यासे लंग -लंग घूमते देखती हूँ, तो समझती हूँ,उनसे उनकी माँ से विलग कर, उनके हिस्से का दुध दुसरे लोग पी जाते है.
बुआ जी के बड़े से घर आँगन में मेरा बहुत लाड़ प्यार होता , वंहा बहुत सी औरतें, बच्चे मोहल्ले के आते , जिनकी मई छोटी बाई थी, यंहा भी, वंही सम्पन्नता थी, नौकर-चाकर , बनिहार-बूटियार etc
वंही पर बुआ जी एक सौत भी थी, मैंने उसपर, लिखी हूँ, इश्लीए अपनी जिंदगी, या कहे यात्रा पर लिखूंगी
बुआ जी के घर का माहौल अनुकूल था , इतना दुलार और ऐश्वर्या , की राजसी ठाट -बात में पलटी रही
ये नही जानती थी, कि किसी चीज को कैसे बरतना चाहिए, ये पता होता तो, जो आज सम्पति मिली उसका प्रबंधन कर सकती, इतना धन बर्बाद नही होता , और, जीवन में आज अनिश्चितता नही होती
क्यूंकि, हमे पता ही नही था, की जो वैभव या धन-सम्पत्ति है, उसके लिए कितने जतन करने होते है, एक एक पैसे को सम्भालना होता है
इन्ही, तो होता है ,माता पिता के संघर्ष को जब हम नही जानते, तो, जीवन के संघर्ष से अपरिचित रह जाते है
मनमाना खर्च तो, नही करते थे, फिर भी जो उपलब्ध था, जीवन, वो, मध्यम वर्ग से ऊँचा था, अलहदा था , बुआ जी के एक गिलास पानी के लिए भी मुझसे नही कहा जाता था , बिस्तर पर सोने जाते तो, वह भी नौकर बिछाता था , और जब उठते तो, वह बिछौना भी नौकर ही आकर उठाते थे , आज ऐसे पराधीन जीवन की कल्पना बेमानी है ,फिर भी देखती हूँ , मेरा बीटा कुछ रहता है, जैसे मई तब रहती थी, लेकिन, मई एक कळवळी की तरह आज काम करती हूँ, हालाँकि घर में सब-सुख है, लेकिन याद इन्ही पड़ता है, की तब, मई बिलकुल कुछ नही करती थी, सिवाय पढ़ने लिखने के
बुआ की ही नही मोहल्ले भर में सबकी लाड़ली मई , जब, वे जानेंगे की आज कितनी मेहनत करती हूँ, तो, उन्हें क्या ख़ुशी होती होगी
किन्तु, मुझे आज अपने घर ही नही, देश के लिए भी काम करते, बहुत प्रस्सनता होती है
आज इतना ही
कल, बताउंगी, कैसे मई वंहा तिजोरी पर रखे प्सिक्कों को मुट्ठी में भरके ले जाती और, एक खिलौना खरीदती थी
No comments:
Post a Comment