Tuesday, 30 July 2013

dil dhadkta h

जाने क्यों उसके ख्याल से
आज भी दिल , धडकता है
भूलना चाह  कर भी
जब नही भुला पाते
तो, क्यों ऐसा लगता है
की , हम कोई गुनाह कर रहे है 

Monday, 29 July 2013

ek khat

pear
हमेशा   सोचती हूँ की, यंहा आकर  लिखना है , किन्तु, अक्सर भूल जाती हूँ , की क्या लिखूंगी
मुझे लगता है , की लिखने से  काम  बढ़ जाता है , जिसे पब्लिश करना झंझट जैसा लगता है
किन्तु, जब भी हम  परेशां हो जाते है , तो लिखते है  लिखना हमे मानसिक अवसाद से बचा लेता है .
इशलिये , सोचा है ,की यदि कोई लिखना चाहे तो , उसे मना नही करना चाहिए . ये उसकी अपनी
अनुभूति है , जिसे कोई भी अपने तरीके से  व्यंक्त करता है
जोगेश्वरी 

jb teri samandr aankhon me

जब तेरी समन्दर  आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोयेंगे घर दर  वाले
और राही अपनी रह लेगा
ये मेरी नही किसी नमी शायर की ग़ज़ल है
आपके लिए यंहा लिखी है 

Sunday, 28 July 2013

kya bolti

लाज से भरे, वो तीखे नयन
जैसे एक हो रहे हो
धरती व् गगन 

Saturday, 27 July 2013

tujhe bhul jana

तुझे भूल जाना , जाना
मुमकिन नही
तेरी याद न आये
ऐसा कोई दिन नही

दूसरा गीत भूल रही हूँ 

Saturday, 20 July 2013

chalo chalte h, us par

चलो चलते है , उसपार
जन्हा छाई रहती है
हरदम मस्त बहार
जन्हा झरते है झरने
और कूकती है कोयल
आ, मेरे संग , वंहा चल
जन्हा घिरती है घटाएँ
बरसती है फुहारें
भीग जाता है , जिनसे
तुम्हारा सतरंगी आँचल
आ चलते है , उसपर

(अभी लिखी हूँ , तुरंत ये कविता )
जोगेश्वरी सधीर 

Friday, 19 July 2013

dekhun bahte dharon ko,

  आओ , तुम्हारी नजर से देखूं
इन नजारों को
दूग्ध -फेन से बहते
गंगोत्री केके धारों को
अलक-नंदा पर चमकती
चोटियों की कतारों को

तुम्ही, तो,   हो , जो
जोड़ती  हो जग से
तुम एक पूल  हो
जिससे दुनिया का मर्म
समझ में आता है
वरना क्या है
तुम्हारे बिना ये जीवन

जब भी
सतपुड़ा के जंगलों की
पेड़ों की पातें
पंक्तिबद्ध नजर आती  है
जंहा तक दृष्टी जाती है
वो, जंगलों के पार
क्षितिज में
पहाड़ों के उपर
जंहा छा जाती है
अरुणिमा धूसर
बस  

Wednesday, 17 July 2013

kachnar ki ..........

क्या जानेगी बातें तू प्यार की
क ....क ...कच्ची , कली कचनार की

इसका अनुवाद देख रही हूँ 

Friday, 5 July 2013

likhna chahti hu, us sundrta ko

लिखना चाहती हूँ , और बताना चाहती हूँ
उस सौंदर्य को , जो आप रातों को उठकर
आकाश  में  बादलों में छिपे , उनिनिंदे
चंद्रमा को, बादलों में छिप कर सोते
देखते है ,
तब, हवा भी जैसे साँस लेना भूल जाती है
इतनी मासूमियत होती , उस
चंद्रमा के संग निशा के , ऊँघने में

कविता , अभी ही लिखी,
जम नही रही है
क्यूंकि, बात इससे भी ज्यादा
खुबसूरत हो सकती है
जोगेश्वरी 

Thursday, 4 July 2013

bnaras ki byar

वो  उछलते हुए
मांसल कचनार
वो, मचलती हुयी
गंगा की धार
वो लरजती हुयी
गुलमोहर की डाल
वो महकते हुए
मुस्कराते दीये
वो, चमकते हुए
मन्दिरों के  कंगूरे
वो, झलकते हुए
कलशों के भार
वो मन्दिरों से आती
घंटियों की अनुगूँज  
वो, बेलौस छा जाती
बनारस की बयार

काफी संयत भाषा में लिखी , कविता
जोगेश्वरी