pear
हमेशा सोचती हूँ की, यंहा आकर लिखना है , किन्तु, अक्सर भूल जाती हूँ , की क्या लिखूंगी
मुझे लगता है , की लिखने से काम बढ़ जाता है , जिसे पब्लिश करना झंझट जैसा लगता है
किन्तु, जब भी हम परेशां हो जाते है , तो लिखते है लिखना हमे मानसिक अवसाद से बचा लेता है .
इशलिये , सोचा है ,की यदि कोई लिखना चाहे तो , उसे मना नही करना चाहिए . ये उसकी अपनी
अनुभूति है , जिसे कोई भी अपने तरीके से व्यंक्त करता है
जोगेश्वरी
चलो चलते है , उसपार
जन्हा छाई रहती है
हरदम मस्त बहार
जन्हा झरते है झरने
और कूकती है कोयल
आ, मेरे संग , वंहा चल
जन्हा घिरती है घटाएँ
बरसती है फुहारें
भीग जाता है , जिनसे
तुम्हारा सतरंगी आँचल
आ चलते है , उसपर
आओ , तुम्हारी नजर से देखूं
इन नजारों को
दूग्ध -फेन से बहते
गंगोत्री केके धारों को
अलक-नंदा पर चमकती
चोटियों की कतारों को
तुम्ही, तो, हो , जो
जोड़ती हो जग से
तुम एक पूल हो
जिससे दुनिया का मर्म
समझ में आता है
वरना क्या है
तुम्हारे बिना ये जीवन
जब भी
सतपुड़ा के जंगलों की
पेड़ों की पातें
पंक्तिबद्ध नजर आती है
जंहा तक दृष्टी जाती है
वो, जंगलों के पार
क्षितिज में
पहाड़ों के उपर
जंहा छा जाती है
अरुणिमा धूसर
बस
लिखना चाहती हूँ , और बताना चाहती हूँ
उस सौंदर्य को , जो आप रातों को उठकर
आकाश में बादलों में छिपे , उनिनिंदे
चंद्रमा को, बादलों में छिप कर सोते
देखते है ,
तब, हवा भी जैसे साँस लेना भूल जाती है
इतनी मासूमियत होती , उस
चंद्रमा के संग निशा के , ऊँघने में
कविता , अभी ही लिखी,
जम नही रही है
क्यूंकि, बात इससे भी ज्यादा
खुबसूरत हो सकती है
जोगेश्वरी
वो उछलते हुए
मांसल कचनार
वो, मचलती हुयी
गंगा की धार
वो लरजती हुयी
गुलमोहर की डाल
वो महकते हुए
मुस्कराते दीये
वो, चमकते हुए
मन्दिरों के कंगूरे
वो, झलकते हुए
कलशों के भार
वो मन्दिरों से आती
घंटियों की अनुगूँज
वो, बेलौस छा जाती
बनारस की बयार