Saturday 22 November 2014

रेनू शुक्ला ये पोएट्री शायद आपके लिए होगी 
ये बरसों पहले लिखी ग़ज़ल है 
शायद तुम जैसी कोई नायिका तब इस कविता के केंद्र में रही होगी 
वो, तब कल्पना थी, जो आज सच लगती है 
फ़िलहाल , ये ग़ज़ल तुम पर सच लगती है 


तुम्हारी चितवन में जागा जागा  इशारा है। ………। 

तुम्हारी  चुडिओं की खनक , तुम्हारी झांजर की झंकार 
तुम्हारे आने के पहले करती है, तुम्हारे आने का इजहार 
शर्म से तुम्हारे गालों पर ,सुर्ख लाली का बिखर जाना 
और हंसती हुई आँखों में ,लाल डोरों का छा जाना 
बातों बातों में बेखबर सा , हंसके तुम्हारा बल खाना 
कन्धों से तुम्हारे पल्लू का धीमे से ढलक जाना
अदाओं से मुस्कराकर , तुम्हारा वो, इठलाना 
दिल पर छा जाता है , वो अल्हड़ता में इतराना 
तुम्हारी शोखी , तुम्हारी हंसी , और तुम्हारी चंचलता 
लगती हो, तुम बारिश में , लरजती हुई , कुसुम लता 
हर बात पर हंसना तुम्हारा , हर बात पर खिलखिलाना 
फिर हाथ छुड़ाके, दामन बचाके , तुम्हारा निकल जाना 
मेरे इन्तजार में गुलमोहर तले ,खड़े होकर गुनगुनाना 
शर्मों हया से फिर तुम्हारा , बाँहों में सिमट जाना 
कभी करीब आकर तड़पना , कभी दूर जाकर तड़पाना 
रुला देता है , कभी-कभी,तुम्हारा बेलौस मुस्काना 
नजरों को मिलाना , मिलाके झुकाना , झुकाके उठाना 
मेरी किसी बात पर , तुम्हारा खुलकर खिलखिलाना 
तुम्हारा हर अंदाज मुझे प्यारा है , हर अंदाज निराला है 
तुम्हारी तिरछी चितवन में , जागा जागा सा इशारा है  

(ये मेरी बरसों पहले लिखी ग़ज़ल है )

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