Sunday 9 November 2014

बनारस की बयार 
एक वो भी दिन था जब 
ठण्ड के दिनों में 
रविवार सन्डे को, 
तुम्हारे आँगन में सखी सहेलियों का हुजूम होता 
और घर का माहौल 
हंसी कहकहों से गूंजता था 
तुम इधर से उधर 
सबके संग सबकी बातों को सुनती 
कुछ अपनी कहती 
ज्यादा मुस्कराती हुई 
डोलती रहती 
वो, भी क्या वक़्त था 
जब तुम्हारा और तुम्हारी सखी 
सिवांजलि का 
पीएचडी के लिए सिलेक्शन हो गया था 
तुम खुश थी 
तुम्हारे पल्लव कुसुम सरीखे अधरों पर 
कितनी प्यारी मनमोहक मुस्कान थी 
तुम कुछ घबराई सी तब बनारस 
जाने की तयारी में मग्न थी 
और घर में दादी तुम्हे 
कितनी हिदायतें थमा रही थी 
और तुम्हारी म्म्म्मी भी तो 
तुम्हारे बिना घर की कल्पना से 
कुछ मायुश थी 
किन्तु, तुम जल्द ही बनारस पहुंची थी 
वो, भी क्या दिन थे 
जब भू बी ेहाच उ में 
तुम्हारा जलवा बिखर रहा था 
तुम कितनी सीधी, व् गंभीर रहती थी 
किन्तु, तुम्हारी हंसी सखी सहेलियों के बीच तो थी ही 
बेलॉश , बेलोश , बेलौश 
तुम वाकई बहुत सिंसियर थी 
जो भी करती मन लगा कर करती 
ऐसे की उसमे जान दाल देती थी जानेमन 

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