Tuesday 9 December 2014

प्रसंशा ने नारी मन  छला है 
ये उसे जाने कहा ले जाती है 
किन्तु, ये सत्य है 
की नारी की सच्ची जगह, व् साथी 
उसकी गृहस्थी रही है 
जिसकी वो, एकमात्र स्वामिनी होती है 
जो, शब्द उसे अपने घर व् उसके मान-प्रतिष्ठा से दूर करते है 
वो, स्वार्थी भी हो सकते है 
और भ्रमित करने वाले भी 
                       
भवप्रीता 
भवप्रीता 
भाावपरीता 
ह्रदय में है , जिसके 
सात्विक , कोमल भाव 
शील  में हो 
जैसे , राम की सीता 
आपकी प्रशंशा में अर्पित है 
मेरी ये कच्ची पक्की 
सलज्ज कविता 
                           
काया जिसकी 
कमनीय कमनीय 
सुदीर्घ नेत्र 
चंचल , चंचल 
छवि सात्विक 
उज्जवल उज्जवल 
सुघड़ सलोनी गोरी से मिलने 
किसका मन नही रहा मचल 
                                           
मत नहाओ 
यूँ, तन को मलमल 
शुभ्रा हो जायेगा 
गंगा जी का जल 
                                         
जिसके 
जिसके गोर तन पर 
निखरा निखरा 
बिखरा बिखरा अंचल 
जिसके भ्रू सञ्चालन से 
निकल  जाते है 
तपस्वियों के बल। । 
                                        सुदीर्घ 
सुदीर्घ नेत्रों में 
जिसके नही है , काजल 
अधर जिसके पुष्प पल्लवित 
ज्यों , रक्तिम-कमल-दल 
                                          
(ये कविता परिमार्जित  है , जल्दी में  बीच लिखी गयी है )
sorry, byaar , iske bad sari kavita apke liye hi likhi jani h

3 comments:

  1. nhi pta rang kisne htaya h, mai to likhne me thi

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  2. kya kru, maine likhi thi, ki ye kavita parimarjit nhi h, ynha likha h, ki pari-marjit h

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  3. paari-marjit nhi h, ye likhi thi, kintu vnha likha h, paari-marjit h, nhi pta, kaun ye chedchhad kr gya

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