Monday 7 December 2015

 बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक  झटका था 
बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती 
मई  थी, नई जगह मेरे माता पिता का घर था, जन्हा मेरे ६ बहन भाई थे, पर  खिचाई करते 
मुझे यंहा भी बहुत अच्छा माहौल मिला, मुझे ढेर साड़ी किताबें पढ़ने मिलती थी, पहले तो, मैंने धार्मिक किताबें पढ़नी आरम्भ  की,क्यूंकि, उस बेस बरस तो, मेरा स्कुल जाना नही हो स्का , पितृ -पक्ष में बुआ जी के घर से गयी थी, बहुत डर्टी थी , डरती थी, बाबूजी ने बहुत जगह मुझे दिखाए , शाम के पहले बाबूजी या अपने जीजू के पास चली जाती उन्हें रोकती, उसी साल मेरी दी की शादी हुई थी, मई उनके घर जाती , या अपने बाजु में किराये वालों के घर बैठती धीरे धीरे मुझे उस भय से मुक्ति मिली, तो, चूँकि मेरी क्लास नही होती थी, तो नौकर के साथ बाजार जाती, एक नौकर मुझे बाजार ले जाता था , और मई तोता मैन के किस्से खरीदती थी 
इस तरह से समय गुर रहा था मेरी पढ़ने  बढ़ती जाती थी मुझे दीदी के घर भी बहुत से पत्रिकाएं मिलती, धर्मयुग व् माधुरी वंही से मिली, माधुरी व् चित्रलेखा ये नियमित पढ़ती, तभी से फिल्मों के प्रति रुझान बढ़ा, की कैसे बनती है, कैसे लिखा जाता है बहुत गंभीर लेखों को गंभीरता से पढ़ती थी अख़बार तो, पूरा चाट डालती थी, यंहा तक की हमेशा सम्पादकीय तक गंभीरता से पढ़ती और समझती थी फिर अगले साल जब मेरा नए स्कुल में दाखिला हुआ तो, मई अपनी पढ़ाई में लग गयी थी और , बीबीसी लंदन सुनती, रेडिओ में भी सभी  समझने की कोशिश होती खुद से ही सब  पढ़कर समझने की ललक थी खुद को खुद ही राह दिखती थी उसी वक़्त से टाईमटेबल बना कर पढ़ती व् घर के काम भी करती थी ,माँ ने सब काम करना सिखाई थी, सब कुछ छठवी से करने लगी थी, घर में झाड़ू लगाने का बड़े ही मनोयोग से करती, जबकि नौकर व् कामवाली होती थी 
कहा गया, वो उत्साह, वो हुलास कर काम करने का भाव, अब तो काम करती नही, जैसे टालती हूँ 
शेष फिर 

No comments:

Post a Comment