आजके इतने तेज युग में उस दौर की कल्पना बेमानी है, बहुत ही सुकून था , आराम से जीते थे , बुआ जी के घर की यादें कम तो, नही पद रही थी , पर रेडिओ सुनने और नावेल पढ़ने की नई आदत लगी थी घर चूँकि सड़क के किनारे एक अलग द्वीप जैसा था, जन्हा हम जैसे सर्वे सर्वा थे, सबके बीच नही रहे, बीएस अपना घर जाना, बहुत बड़ा, विस्तृत और खुला घर, बड़े आँगन, एक नही ४-५ आँगन, घर के आगे पीछे और सहन व् छापरी, जन्हा अनाज व् डालें सूखती, घर में सम्पन्नता थी, और गरीबी का कंही पता न था, क्यूंकि छोटे घरो में जाना नही हुआ था , इन्ही नही समझा की इससे बहार की दुनिया में बड़ी समस्या है जो , लोग आते थे, उनपर बहुत रहम आता था उनमे घर के कामवाली थे, व् कामवालियां थी
आजकल, तो जाड़ों के दिन है, हम खेत जाते थे, घूमने के लिए, उड़द , तुअर और चना की फसल आती थी तब, और मई जो देखती थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में है गाँव में फैली गरीबी का प्रतिक थी, वो औरत
वो, औरत बेचारी युवा ही थी, और ेचरी के साथ बच्चे होते थे, सब सिला बीनने आते थे, वे सब पढ़े लिखे नही होते, घरो में काम करती वो, औरत और फिर दिन भर शीला बिनती थी, जो खेतों में धन गिरता था , तो उसे काटने के बाद बोझ बंधने के बाद जो खेत में पड़ा रह जाता था , वो शीला कह लता था , उसे बिन्ते, बच्चो सहित वो गरीब औरत अति थी
और हमारे घर के साइड में जो नल था , नाला था, वो अमराई के पास था, वंही आम के पेड़ों के साथ, एक दो महुए के पेड़ थे, महुआ मार्च के पहले फागुन में झरता था , सब गरीबों का वो अमृत फल था, उसके क्या क्या नही बनते थे, क्या बताऊँ गरीबी बहुत थी, पर पकृति उसे निहाल कर देती थी अब नेचर नही है, तो खाने को कुछ नही है, हम बपो bpo के जाल में है
बुआ जी के घर का कुछ भी बिसरा नही, बाबूजी के घर का नवीन जीवन शुरू हुआ, जिसमे पढ़ाई के साथ ही, नावेल पढ़ने की लत लग गयी थी , ऐसी की छुट्टी नही थी, सबसे पहले गुलसन नंदा की गेलॉर्ड पढ़ी थी, और, वो भी अधूरी, क्यूनी बड़े भाई ने नावेल पढ़ते पकड़ कर छीन लिया था, खुद तो, नावेल लेकर पढ़ता, पर मई छिप कर नावेल पढ़ती थी, मुझे गुलसन नंदा , और प्रेम बाजपेई के नावेल पढ़ने मिले, गुलसन की चिंगारी, नमक उपन्यास, सबकुछ रोमांटिक और ऐसी दुनिया जो हक़ीक़त से अलहदा थी तभी तो नौकरी नह कर सकी, वास्तविकता का पता नही चला, और मुंबई के सपने देखती रही, जन्हा बेतहाशा नुकशान किया
आप अपनी स्टडी को पैसों में कैसे बदलते हो, ये ज्यादा प्रमुख है मेरा कोर ज्ञान मुझे धन नही दिल स्का तो,सबने कहना शुरू कर दिया, लिखकर क्या मिलता है पर मई लिखना नही छोड़ सकी ये प्रकृति का उपहार था
, और मुहे दूसरा उपहार मित्रता का मिला, ऐसे ऐसे मित्र व् परिचय मिले की मुझे गर्व है, अपनी मित्रता व् मित्रों की बहुत कदर करती हु, एकड़ एकाध ने मुझसे जो दगा किया, उसके लिए अपने सब मित्रो को मई कभी इग्नोर या ब्लैम नही कर सकती, लिखने के बाद अपनों की दोस्ती, ये मुझे गॉड गिफ्ट है, और मैं सब पर गर्व करती हूँ
कल, बताउंगी , कि , मैंने क्या पढ़ा, और कैसे एक समर्पित लेखिका बनती चली गयी, यूँ कहे, कि मई लेखिका से ज्यादा एक चिंतक बनी, और मेरे घर का बड़प्पन भरा उदार परिवेश मेरे चिंतन को धार देता रहा
आजकल, तो जाड़ों के दिन है, हम खेत जाते थे, घूमने के लिए, उड़द , तुअर और चना की फसल आती थी तब, और मई जो देखती थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में है गाँव में फैली गरीबी का प्रतिक थी, वो औरत
वो, औरत बेचारी युवा ही थी, और ेचरी के साथ बच्चे होते थे, सब सिला बीनने आते थे, वे सब पढ़े लिखे नही होते, घरो में काम करती वो, औरत और फिर दिन भर शीला बिनती थी, जो खेतों में धन गिरता था , तो उसे काटने के बाद बोझ बंधने के बाद जो खेत में पड़ा रह जाता था , वो शीला कह लता था , उसे बिन्ते, बच्चो सहित वो गरीब औरत अति थी
और हमारे घर के साइड में जो नल था , नाला था, वो अमराई के पास था, वंही आम के पेड़ों के साथ, एक दो महुए के पेड़ थे, महुआ मार्च के पहले फागुन में झरता था , सब गरीबों का वो अमृत फल था, उसके क्या क्या नही बनते थे, क्या बताऊँ गरीबी बहुत थी, पर पकृति उसे निहाल कर देती थी अब नेचर नही है, तो खाने को कुछ नही है, हम बपो bpo के जाल में है
बुआ जी के घर का कुछ भी बिसरा नही, बाबूजी के घर का नवीन जीवन शुरू हुआ, जिसमे पढ़ाई के साथ ही, नावेल पढ़ने की लत लग गयी थी , ऐसी की छुट्टी नही थी, सबसे पहले गुलसन नंदा की गेलॉर्ड पढ़ी थी, और, वो भी अधूरी, क्यूनी बड़े भाई ने नावेल पढ़ते पकड़ कर छीन लिया था, खुद तो, नावेल लेकर पढ़ता, पर मई छिप कर नावेल पढ़ती थी, मुझे गुलसन नंदा , और प्रेम बाजपेई के नावेल पढ़ने मिले, गुलसन की चिंगारी, नमक उपन्यास, सबकुछ रोमांटिक और ऐसी दुनिया जो हक़ीक़त से अलहदा थी तभी तो नौकरी नह कर सकी, वास्तविकता का पता नही चला, और मुंबई के सपने देखती रही, जन्हा बेतहाशा नुकशान किया
आप अपनी स्टडी को पैसों में कैसे बदलते हो, ये ज्यादा प्रमुख है मेरा कोर ज्ञान मुझे धन नही दिल स्का तो,सबने कहना शुरू कर दिया, लिखकर क्या मिलता है पर मई लिखना नही छोड़ सकी ये प्रकृति का उपहार था
, और मुहे दूसरा उपहार मित्रता का मिला, ऐसे ऐसे मित्र व् परिचय मिले की मुझे गर्व है, अपनी मित्रता व् मित्रों की बहुत कदर करती हु, एकड़ एकाध ने मुझसे जो दगा किया, उसके लिए अपने सब मित्रो को मई कभी इग्नोर या ब्लैम नही कर सकती, लिखने के बाद अपनों की दोस्ती, ये मुझे गॉड गिफ्ट है, और मैं सब पर गर्व करती हूँ
कल, बताउंगी , कि , मैंने क्या पढ़ा, और कैसे एक समर्पित लेखिका बनती चली गयी, यूँ कहे, कि मई लेखिका से ज्यादा एक चिंतक बनी, और मेरे घर का बड़प्पन भरा उदार परिवेश मेरे चिंतन को धार देता रहा
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