Wednesday 9 December 2015

  इस जन्हा से आगे जन्हा और भी है 
आसमान से आगे आसमां और भी है 
हम नही है आखिरी मंजिल 
हमसे भी आगे सिरमौर और भी है 
तुमने  सोचा था , तुमसे बिछुड़ के 
हम बहुत रोयेंगे 
साथ रहके , कारवां में 
हम साथ चले भी और नही भी 
वो  था, जब मई शाम के पहले सामने के सहन में  की गॉड में या उनके पास बैठ कर रह से गुजरते सभी को देखती 
जिनमे एक बेर वाली बुआ थी , जो की चना-फूटना बेचने गुजरी जाती थी,   कुछ बुआ  लिए ले देती, या फिर यूँ  करती, तो मई भी उनसे बोलती , बुआ जी मुझे तुिनया कहती 
जब मई बाबूजी के घर आई तो, बुआ जी आती तो,  बातें कहती थी, मई सबके हाल पूछती , उनमे बेर वाली बुआ भी होती , सबमे  मेरी सहेली भी होती, मेरी  सहेली ममता तो, जन्हा भी बुआ जी  मिलती, मेरे बारे में पूछती, की जागेश्वरी कब आएगी, बुआ जी मेरी बुआ जी की आँखे भर आती थी, क्या जवाब देती कंठ अवरुद्ध हो जाता था 
मेरे लिए तो, हट्टा की यादें बड़ी धरोहर थी पर समय गुजरा , मई अपनी पढ़ाई में लगी, स्कुल जाने और आने फिर गर को झाड़ू लगाने और  बनाने में लग जाती बुआ जी के घर तो, एक गिलास पानी भी किसी को नही दी थी पर 
माँ ने मुझे घर का सब काम सिखाई,  बनाने का   जिम्मे होता. बहुत व्यवस्था से उतने घर का खाना बनती थी 
माँ ने अंता आटा गूंथना रोटी बनाना सिखाई,  में चूल्हे में खाना बनता था, पहले आग जला कर कांसे कैसे के कसैले में तुअर की दाल गलने रखती, फिर सब्जी फ्राई करती, फिर चावल रखती, इंसके  ,आटा गूँथ कर रखती, और अंत में रोटी सेंकती, रोटी भी फुल्के जैसी बनाना माँ सख्ती थी, माँ ने सभी  तरीके से बनाना सिखाई थी 
अब तो, उतनी तन्मयता से नही बनती, पर इतना तो, है, कि जो भी बनती हूँ, खाने लायक तो होता है 
 हमेशा से शुद्ध शाकाहार था , इसलिए विवाह बाद  अपने घर में सारे बर्तन नए रखे, और फिर मेरे घर में हमेशा शाकाहार रहा 
अब तो, लगता है, वेज वालों के खाने को ही कमतर किया जा रहा है, जो शाकाहारी है, वे खुद नही जानते की सब्जी कैसे उगाई जाती है 
घर से स्कुल जाने में बहुत वक़्त लगता, क्यूंकि, वो दूसरे गांव ब्लॉक में था, मई पैदल जाती, और कई बार अकेले जाती थी 
ये नही समझता था, की सुनसान रस्ते पर अकेले नही जाना चाहिए 

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