Wednesday, 14 May 2014

तुम जब भि सजती संवारती हो 
संवरती हो 
तब तब, सुहागरात हो जाती है 
यूँ कहे 
तुम रास्र्ट् रास रत हो जाति हो 
जाती हो 

आज फिर पूर्ण चंद्रमा निकलेगा 
तुम्हे फ़िर कविता कि क्य जरुरत 
जब सच मे प्रणय 
सन्मुख हो तुम्हारे 
बांहे प्रसार 
प्रसारे 
रहो आगोश मे 
और प्रेम मे मदहोश। …। 

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