Saturday 3 May 2014

अभी कुछ बरस हि तो हुये 
जब तू  नन्ही सि परि सि घर आयि थि फ़िर तुम 
आँगन में खेलने लगी थी घर क एक कोन 
कोना तेरी गुड़ियों से भरा होता था 
तुम फिर सारे घर को सजाने लगी थी 
तुंम्हारे खेल घर के कोने कोने को 
महकते गुलजार करते थे 
तुम हमेशा अपनी सहेलियों संग घिरीं रहती तुमहरि 
तुम्हारी बातें , तुम्हारी हँसि क कोइ अन्त नहीँ थ अ 
तुम अपने चाचा , ताऊ, पप पापा के कांधों प्र पर 
मोड़ तक घूम आती 
तुम बहुत नटखट थी 
धीरे धीरे तुमने 
माँ के कामों मे हाथ बंटाना सिख लिय अ 
अनजाने ही तुम घर के सरे कामों को सँभालने लगी 
घर की साज सम्भार भि तुम करतीं 
तुम्हे पता होती, मा कि व् पिता कि दवाऐं 
डॉक्टर की पर्ची 
और दादी कि थैलियां 
जब बहन कि शादी हुई 
तो, सारे मंडप मे तुम हि जैसे 
साडी शादी को संभाले थी ज्ब उसे बीता 
बेटा हुआ तो, तुम प्यारी मसि 
मासी उसे गोद मे लिये 
सारे मोहल्ले मे घूमती 
पुरे मोहल्ले के बच्चों को तुम दुलारती 
फिर तुम अपनी पढ़ाई मे लगतीं गयी 
तुम्हारे   सपने झिलमिलाने लगें 
कितने तरह के सपने.... रात आँखों मे 
तुम्हारे संग सोते जागते 
और तुम बड़ी होने लगी 
तुम्हारा सजना संवरना 
तुम्हारा आईने मे खुद को निहारना 
ओह, ये सब तुम्हे  कितना मीठा लगता 
और गली से निकलते 
तुम बदन बचके निकलतीं 
कभी झूमती चलती 
जब सखियों संग होती 
और जब अकेले होती तो गली से तीर 
सी निकलती। ……… 
शेष कविता कल। .... 

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