,गीतों का चलन आजकल नही रहा है, नही गाते , पर जो उसवक्त औरतें गाती थी
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
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