सब जैसे कंही जा रहे है, दूर अपने वतन से , अपनी धरती से ,तब मई बुआ जी के उस अतीत के घर के घूरो को याद कर रही हूँ, वो, घूरो जन्हा गौओं का गोबर फेंकते थे , जो गोबर उठाते थे , उनकी दयनीय जिंदगी में मनो-मालिन्य नही था। हम बरसों के बाद पते है, कि वे कामवाली अब नही है, अब उन्हें अधिकार मिल गए है. तब वे प्रातः से आते थे, हमारे घर में बिस्तर उठाने से लेकर बिस्तर बिछाने तक का काम वे कामवाली करते थे, सच समझा, और आज कंही के नही है
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
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