बुआजी के घर से जैसे आजतक नही निकली हूँ , कल-परसों जब डॉ, सुनीता मनु का संस्मरण पढ़ रही थी, तो आंसू बहने लगे थे, और मई भी वैसा ही लिखना चाहती हूँ
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
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