Tuesday, 15 December 2015

bnaras ki byar: swarn-champa

bnaras ki byar: swarn-champa: swarn-champ tumne chandrma se mukhde pr ghunghat kyun nhi dala tum jidhar se nikli udhar se lutke le gyi kjrari ankhiyon se chaman sa...

Sunday, 13 December 2015

माँ  बीमार हो गयी है  की 
वो, बहुत डर्टी है डर्टी डरती है कहती है 
जब टॉयलेट जाती है 
तो, उठा नही जाता 
ये है, जीवन का सच 

Friday, 11 December 2015

वो जो नशा है , नही उतरता आज तक, तब जो पढ़ती थी , वह दिमाग में रच-बस गया है, जिंदगी ने बहुत रंग बदले है, पर वो रंग नही उतरता है 
घर से स्कूल के बाद  पसंदीदा जगह थी, वो, घर की बाड़ी थी, और  खलिहान था, जन्हा मई पढ़ती थी, चना , तुअर के  पढ़ना , और अमराई में  से एक  महसूस करना 
वंही अपने साहित्य को मैंने अपना लिया , मुझे नही पता था, कि ज्ञान को करेंसी में कैसे बदलते है 
मेरे इये लिए जिंदगी का मतलब था, पढोलिखो 
फिर मुझे ८थ कक्षा  ग्रामीण छात्रवृति हेतु चयन किया गया तो , बालाघाट जाना पड़ा, जन्हा मैंने bscतक की पढ़ाई की, कविता लिखना ८ वि से शुरू हुआ और बिना किसी के मार्गदर्शन के मुझे  कहानी िखने का रोग लग गया , ये ऐसी आदत थी, की जिसे मैंने नही जाना, कि इससे कोई पैसा मिलेगा या नही, बीएस क्लास की पढ़ाई फिर अपने कविता कहानी की अलग दुनिया 
जिसे कहते है, कि गयी काम से 
या लिखने में गई तो, कोई काम की नही रही , बलाघात से मई  llbकरने नागपुर गयी , वंही मेरा शादी के लिए चयन हो गया , चयन इसलिए कि ये भी एक जॉब था, उर मई अपनी लॉ की पढ़ाई, और नई गृहस्थी में तालमेल बिठालती रही, जो आजतक जारी है 
 भी थी, जो भी हस्र था , जो भी ष्ण था,, मैंने हमेशा सबसे अच्छा करना है, ये जीवन की  ,इन्ही समझा 
रात दिन म्हणत की , psc & cj  की एग्जाम में लगी, बीटा चूका था, घर में  देते थे, पीटीआई के ईटा ने जिन हराम कर रखा था, वह सब लिखने से लड़कियों का मन भयभीत होता है, इसलिए  भुला कर  की बातें लिखना चाहूंगी , कि जब मई  सेवा के लिए लिखित व् साक्षात्कार में अव्वल आई, इर भी मुझे वेटिंग में डाल दिया गया, और मई सरकारी नौकरी से वंचित रह गयी, उस वक़्त हमारी साहू कास्ट को obc में नही लाया गया था, पर मेरे मेरे मार्क्स इतने धांसू थे, कि मुझे  जरुरत नही रह गयी   लग्गाभी कोई चीज हटा  राज्य सेवा से वंचित तो  रही,र मुझे प्रशाशन का ऐसा नशा ग की आजतक मई रधानमंत्री को आने पत्र लिख  ,सॉरी, प्रधानमंत्री जी को , खैर  ठहरा मेरा जूनून पागलपन, जो आजतक सर चढ़कर बोलता है 
मई बाकी बातें कल लिखूंगी ,  कहानी, जो लेखन की यात्रा थी, रही वो, बहुत सीधी नही थी ,   इसमें 

hnsa jaye akela

आजके इतने तेज युग में उस दौर की कल्पना बेमानी है, बहुत ही सुकून था , आराम से जीते थे , बुआ जी के घर की यादें कम तो, नही पद रही थी , पर रेडिओ सुनने और नावेल पढ़ने की नई आदत लगी थी घर चूँकि सड़क के किनारे एक अलग द्वीप जैसा था, जन्हा हम जैसे सर्वे सर्वा थे, सबके बीच नही रहे, बीएस अपना घर जाना, बहुत बड़ा, विस्तृत और खुला घर, बड़े आँगन, एक नही ४-५ आँगन, घर के आगे पीछे और सहन व् छापरी, जन्हा अनाज व् डालें सूखती, घर में सम्पन्नता थी, और गरीबी का कंही पता न था, क्यूंकि छोटे घरो में जाना नही हुआ था , इन्ही नही समझा की इससे बहार की दुनिया में बड़ी समस्या है जो , लोग आते थे, उनपर बहुत रहम आता था उनमे घर के कामवाली थे, व् कामवालियां थी 
आजकल, तो जाड़ों के दिन है, हम खेत जाते थे, घूमने के लिए, उड़द , तुअर और चना की फसल आती थी तब, और मई जो देखती थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में है गाँव में फैली गरीबी का प्रतिक थी, वो औरत 
वो, औरत बेचारी युवा ही थी, और ेचरी के साथ बच्चे होते थे, सब सिला बीनने आते थे, वे सब पढ़े लिखे नही होते, घरो में काम करती वो, औरत और फिर दिन भर शीला बिनती थी, जो खेतों में धन गिरता था , तो उसे काटने के बाद बोझ बंधने के बाद जो खेत में पड़ा रह जाता था , वो शीला कह लता था , उसे बिन्ते, बच्चो सहित वो गरीब औरत अति थी 
और हमारे घर के साइड में जो नल था , नाला था, वो अमराई के पास था, वंही आम के पेड़ों के साथ, एक दो महुए के पेड़ थे, महुआ मार्च के पहले फागुन में झरता था , सब गरीबों का वो अमृत फल था, उसके क्या क्या नही बनते थे, क्या बताऊँ गरीबी बहुत थी, पर पकृति उसे निहाल कर देती थी अब नेचर नही है, तो खाने को कुछ नही है, हम बपो bpo के जाल में है 
बुआ जी के घर का  कुछ भी बिसरा नही, बाबूजी के घर का नवीन जीवन शुरू हुआ, जिसमे पढ़ाई के साथ ही, नावेल पढ़ने की लत लग गयी थी , ऐसी की छुट्टी नही थी, सबसे पहले गुलसन नंदा की गेलॉर्ड पढ़ी थी, और, वो भी अधूरी, क्यूनी बड़े भाई ने नावेल पढ़ते पकड़ कर छीन लिया था, खुद तो, नावेल लेकर पढ़ता, पर मई छिप कर नावेल पढ़ती थी, मुझे गुलसन नंदा , और प्रेम बाजपेई के नावेल पढ़ने मिले, गुलसन की चिंगारी, नमक  उपन्यास, सबकुछ रोमांटिक और ऐसी दुनिया जो हक़ीक़त से अलहदा थी तभी तो नौकरी नह कर सकी, वास्तविकता का पता नही चला, और मुंबई के सपने देखती रही, जन्हा बेतहाशा नुकशान किया 
आप अपनी स्टडी को पैसों में कैसे बदलते हो, ये ज्यादा प्रमुख है मेरा कोर ज्ञान मुझे धन नही दिल स्का  तो,सबने कहना शुरू कर दिया, लिखकर क्या मिलता है पर मई लिखना नही छोड़ सकी ये प्रकृति का उपहार था 
, और मुहे दूसरा उपहार मित्रता का मिला, ऐसे ऐसे मित्र व् परिचय मिले की मुझे गर्व है, अपनी मित्रता व् मित्रों की बहुत कदर करती हु, एकड़ एकाध ने मुझसे जो दगा किया, उसके लिए अपने सब मित्रो को मई कभी इग्नोर या ब्लैम नही कर सकती, लिखने के बाद अपनों की दोस्ती, ये मुझे गॉड गिफ्ट  है, और मैं सब पर गर्व करती हूँ 
कल, बताउंगी , कि , मैंने क्या पढ़ा, और कैसे एक समर्पित लेखिका बनती चली गयी, यूँ कहे, कि  मई लेखिका से ज्यादा एक चिंतक बनी, और मेरे घर का बड़प्पन भरा उदार परिवेश मेरे चिंतन को धार देता रहा 

Wednesday, 9 December 2015

  इस जन्हा से आगे जन्हा और भी है 
आसमान से आगे आसमां और भी है 
हम नही है आखिरी मंजिल 
हमसे भी आगे सिरमौर और भी है 
तुमने  सोचा था , तुमसे बिछुड़ के 
हम बहुत रोयेंगे 
साथ रहके , कारवां में 
हम साथ चले भी और नही भी 
वो  था, जब मई शाम के पहले सामने के सहन में  की गॉड में या उनके पास बैठ कर रह से गुजरते सभी को देखती 
जिनमे एक बेर वाली बुआ थी , जो की चना-फूटना बेचने गुजरी जाती थी,   कुछ बुआ  लिए ले देती, या फिर यूँ  करती, तो मई भी उनसे बोलती , बुआ जी मुझे तुिनया कहती 
जब मई बाबूजी के घर आई तो, बुआ जी आती तो,  बातें कहती थी, मई सबके हाल पूछती , उनमे बेर वाली बुआ भी होती , सबमे  मेरी सहेली भी होती, मेरी  सहेली ममता तो, जन्हा भी बुआ जी  मिलती, मेरे बारे में पूछती, की जागेश्वरी कब आएगी, बुआ जी मेरी बुआ जी की आँखे भर आती थी, क्या जवाब देती कंठ अवरुद्ध हो जाता था 
मेरे लिए तो, हट्टा की यादें बड़ी धरोहर थी पर समय गुजरा , मई अपनी पढ़ाई में लगी, स्कुल जाने और आने फिर गर को झाड़ू लगाने और  बनाने में लग जाती बुआ जी के घर तो, एक गिलास पानी भी किसी को नही दी थी पर 
माँ ने मुझे घर का सब काम सिखाई,  बनाने का   जिम्मे होता. बहुत व्यवस्था से उतने घर का खाना बनती थी 
माँ ने अंता आटा गूंथना रोटी बनाना सिखाई,  में चूल्हे में खाना बनता था, पहले आग जला कर कांसे कैसे के कसैले में तुअर की दाल गलने रखती, फिर सब्जी फ्राई करती, फिर चावल रखती, इंसके  ,आटा गूँथ कर रखती, और अंत में रोटी सेंकती, रोटी भी फुल्के जैसी बनाना माँ सख्ती थी, माँ ने सभी  तरीके से बनाना सिखाई थी 
अब तो, उतनी तन्मयता से नही बनती, पर इतना तो, है, कि जो भी बनती हूँ, खाने लायक तो होता है 
 हमेशा से शुद्ध शाकाहार था , इसलिए विवाह बाद  अपने घर में सारे बर्तन नए रखे, और फिर मेरे घर में हमेशा शाकाहार रहा 
अब तो, लगता है, वेज वालों के खाने को ही कमतर किया जा रहा है, जो शाकाहारी है, वे खुद नही जानते की सब्जी कैसे उगाई जाती है 
घर से स्कुल जाने में बहुत वक़्त लगता, क्यूंकि, वो दूसरे गांव ब्लॉक में था, मई पैदल जाती, और कई बार अकेले जाती थी 
ये नही समझता था, की सुनसान रस्ते पर अकेले नही जाना चाहिए 

Tuesday, 8 December 2015

अब तो हम झूठ-मुठ इज्जत की बात नही कर सकते बहुत ही ज्यादा पतन हुआ है 
बुआ जी के घर से दूर होकर, मैंने खुद को पुस्तको में तलाशा 
और, पढ़ाई-लिखे की दुनिया में प्रवेश कर गयी , अपने ही मन से, किसी ने प्रेरित नही किया घर के विस्तृत परिसरों ने मुझे लिखने-पढ़ने की आज़ादी दी, और ऐसा माहौल मुहैया करा दिया, की मई उस दुनिया में खो सी गयी बुआ जी अब भी याद आती , पर मैं अब रोटी नही थी, और किताबों के किरदारों पर विचार करती मुझे किताबों की दुनिया अपनी लगने लगी, और मुझे वंहा अपने नए सपने झलकने महसूस हुए 
मैंने भारत के लिए सपनो पर जो भेजा लिखकर, उससे , एक रेडिओ आया था, लेकिन पैसे भी देने थे, तो, अपने सपनो के भारत के उपहार को एक पंचयत पंचायत बाबू ने ले लिए, वो पहला गिफ्ट था , जिसने बता दिया की मुझे कीमत अदा करनी है मुझे बुआ जी के बाद जो भी उपहार मिले, वो मेरे घर से मिले, मैंने बाहर से कभी कंही से एक भी गिफ्ट नही जाना शायद मेरी किस्मत नही थी पर , मुझे जो नेचर ने प्रकृति ने गिफ्ट किया वो, इतना ज्यादा था, की मैंने बेतहासा लिखा, और, अपने देश के प्रधानमंत्रियों को समय समय पर  लिख भेजा पर, वंहा या कंही से कुछ नही मिला मेरी किस्मत ऐसी कि पसक pscकी परीक्षाओं में पास होकर मई प्रतीक्षा सूचि में चली गयी, फिर मई लिखने लगी इतना लिखा कि पूछो मत, पर वंहा भी अपना सब कुछ गंवा कर भी मुझे कुछ भी हासिल नही हो सका , कोई इस क्षेत्र में अपना नही था सब कुछ पैसे से हासिल था, या कोई पहचान या सिफारिश पर, मई सब जगह शिकस्त कहती रही मेरे इस हार ने, मेरी असफलता ने मेरे बेटे को  बीमार कर दिया 
मैंने फिल्म लाइन ज्वाइन करना चाहा, लिखने से लेकर डायरेक्शन तक, सब मृगतृष्णा थी आज भी लिखना 
पढ़ना नही छूट रहा , सब लोग मुझे कहते है, जब कुछ नही मिलता तो, क्यों लिखती है यंहा तक कि मुझपर बेटे की अनदेखी करने का इल्जाम , क्या क्या नही सहा ये सब सहकर, किसी को लिखने की सलाह नही दे सकी , 
आज जब शेयर मार्किट में नुकसान की तब समझ रही हूँ कि ये मेरी लाइन नही है मई देश के लिए सपने देख , रही थी  किन्तु,इसके लिए  होना , ये सब  के सहारे व् परिचय से  होता है परिचय व्  किसी भी लाइन में आपको पंगु  बना  

Monday, 7 December 2015

bnaras ki byar:  बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक  झटका था बी वे आ...

bnaras ki byar:  बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक  झटका था 
बी वे आ...
:  बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक  झटका था  बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती  मई  थी, नई जगह मेरे ...
 बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक  झटका था 
बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती 
मई  थी, नई जगह मेरे माता पिता का घर था, जन्हा मेरे ६ बहन भाई थे, पर  खिचाई करते 
मुझे यंहा भी बहुत अच्छा माहौल मिला, मुझे ढेर साड़ी किताबें पढ़ने मिलती थी, पहले तो, मैंने धार्मिक किताबें पढ़नी आरम्भ  की,क्यूंकि, उस बेस बरस तो, मेरा स्कुल जाना नही हो स्का , पितृ -पक्ष में बुआ जी के घर से गयी थी, बहुत डर्टी थी , डरती थी, बाबूजी ने बहुत जगह मुझे दिखाए , शाम के पहले बाबूजी या अपने जीजू के पास चली जाती उन्हें रोकती, उसी साल मेरी दी की शादी हुई थी, मई उनके घर जाती , या अपने बाजु में किराये वालों के घर बैठती धीरे धीरे मुझे उस भय से मुक्ति मिली, तो, चूँकि मेरी क्लास नही होती थी, तो नौकर के साथ बाजार जाती, एक नौकर मुझे बाजार ले जाता था , और मई तोता मैन के किस्से खरीदती थी 
इस तरह से समय गुर रहा था मेरी पढ़ने  बढ़ती जाती थी मुझे दीदी के घर भी बहुत से पत्रिकाएं मिलती, धर्मयुग व् माधुरी वंही से मिली, माधुरी व् चित्रलेखा ये नियमित पढ़ती, तभी से फिल्मों के प्रति रुझान बढ़ा, की कैसे बनती है, कैसे लिखा जाता है बहुत गंभीर लेखों को गंभीरता से पढ़ती थी अख़बार तो, पूरा चाट डालती थी, यंहा तक की हमेशा सम्पादकीय तक गंभीरता से पढ़ती और समझती थी फिर अगले साल जब मेरा नए स्कुल में दाखिला हुआ तो, मई अपनी पढ़ाई में लग गयी थी और , बीबीसी लंदन सुनती, रेडिओ में भी सभी  समझने की कोशिश होती खुद से ही सब  पढ़कर समझने की ललक थी खुद को खुद ही राह दिखती थी उसी वक़्त से टाईमटेबल बना कर पढ़ती व् घर के काम भी करती थी ,माँ ने सब काम करना सिखाई थी, सब कुछ छठवी से करने लगी थी, घर में झाड़ू लगाने का बड़े ही मनोयोग से करती, जबकि नौकर व् कामवाली होती थी 
कहा गया, वो उत्साह, वो हुलास कर काम करने का भाव, अब तो काम करती नही, जैसे टालती हूँ 
शेष फिर 

Sunday, 6 December 2015

hnsa jaye akela

बुआ जी के घर का हैंगओवर या नशा आजतक उतरा नही है, वो, आज भी मेरे मन में वैसे ही है 
बुआ जी कितनी गंभीर और मेरे प्रति कितनी चिंतातुर होती थी पर , उनके घर मुझे कोई दुःख तो था नही, ये समझो , की दुःख या चिंता नही जानी थी 
वंहा मई डरना लगी थी, जब उनके घर बुआ जी की  मृत्यु हो गयी तो, मुझे  डॉ लगने लगा था,  अक्सर नज़र आती , और मई डॉ जाती थी, ऐसे में एक रात  
और  मुझे बुआ जी का घर छोड़ना पड़ा था , वो बहुत  दौर था 
एक ऐसा वक़्त जो, हमने साथ गुजर, अचानक जब  चली आई तो, बुआ जी के दुःख का ठिकाना नही रहा 
अपने बेटे व् पीटीआई को खो चुकी थी, अपनी नन्द  की मृत्यु भी उन्होंने अकेले , इतनी सारी मौतों के बाद उस घर में मैं अपने बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से जैसे जिवंत रखती थी 
बा जी   मेरे संग सब भूल जाती थी , यूँ मेरे डरकर चले आने से वे कितनी टूट गयी थी,  पहाड़ जैसा दुःख उनपर आ पड़ा था, कहा बेटे के बिछड़ने के गम से वो, उबर रही थी 
और , अब फिर से अकेली, टूटी सी  ,उदास  अकेली,तन्हा रह गयी थी 
उन्हें धीरोजा व् दूसरी पड़ोसनें मेरी  थी मेरी बातें करना ही उन्हें अच्छा  लगता था फिर  बातें गोष्ठियों की तरह बा  घर होती, उन सभी औरतों  प्रिय विषय  गयी. अपने खेती -बाड़ी के काम से  जब उन्हें फुर्सत मिलती   तो , वे सब मेरी बातें करती। ...छोटी बाई ये  थी...  थी 
मेरे बारे में , मेरी पढाई , मेरे शांत नेचर और शायद कि वे सब मुझे तहेदिल से  चाहती थी 
बुआ जी फिर मेरी यादों में ही खोई रहने  हमेशा घर- जिधर भी जाती , मुझे  थी जब बुआ जी बाबूजी के गांव मुझसे  तो,  जाने कैसे  बैलगाड़ी आने  खबर जाती, आर  और, मई दौड़ती हुई,  बैलगाड़ी तक पहुँचती, इतनी खशी बुआ जी व् मुझे होती, जो बयान  बाहर होती,  आँखें  जाती थी, बुआ जी  तो,जैसे निहाल हो जाती, उनकी आँखों  आंसू भर आते  , और मई तो, जैसे  जाती, बीएस बुआ जी आ गयी , एहि मुझे याद रहता  बुआजी के लिए खत  चारपाई बिछाती ,  जैसे थकी क्लांत सी आती, फिर थक सी जाती,
मुझे देख उन्हें  मिलती होगी , ये आज मई महसूस 
 जब तक  जी रहती , मई  सबकी बातें पूछती , बुआ जी भी बताती, कैसे सब याद करते    
ममता                                                मेरी  

संजना 

Thursday, 3 December 2015

bnaras ki byar: hnsa jaye akela

bnaras ki byar: hnsa jaye akela:    जी बुआजी के घर आती ही, धीरोजा मेहतरानी , वह जब भी हमारे यंहा आती, घर का आँगन गुलजार हो जाता , मेहतरानी थी, तो आँगन तक ही आती थी, रोज चाय...
यस 

O Balam Tere Pyar Ki Thandi Aag Men (Video Song) - Ram Aur Shyam

Humdum Mere Maan Bhi Jao song - Mere Sanam - YouTube.flv

Wednesday, 2 December 2015

hnsa jaye akela

   जी बुआजी के घर आती ही, धीरोजा मेहतरानी , वह जब भी हमारे यंहा आती, घर का आँगन गुलजार हो जाता , मेहतरानी थी, तो आँगन तक ही आती थी, रोज चाय -नास्ता उसके लिए होता, और अक्सर दोपहर को आती, वो मुझे बेहद चाहती थी, मेरे लिए उसके घर के बगीचे से फल लती, सभी मौसमी फल मई उसीके यंहा के कहती थी , आर वो, मुझे सब जगह घूमने ले जाती , यद्यपि उसे नही छूना होता, पर घर से बाहर मई स्की अंगुली थामे ही चलती, बाजार-हैट, गुजरी जाती। बुआ जी नही जाती थी. 
मई रामलीला देखने, गणेश जी व् दुर्गा जी इ दशन भी तो, धीरोजा के साथ जाकर करती, बारिश में भीगते , वो मासूम खिलखिलाते पल जाने कान्हा गए , कहा चले गए, वो प्यारे प्यारे दिन,  बातों को यङ्करके ही , ये गीत िखे होंगे , प्यारे दिन थे वे 
मई जब कुछ बड़ी हुई, स्कुल जाने लगी तो, अपनी सहेली ममता के साथ, दुर्गा जी के मेले में जाती, वंहा से ढेर से खिलौने लेकर हम दोनों एक बड़े से डलिया में रक्ते और, उसे रस्सी से खींचकर , एक दूसरे के घर ले जाते , हम दोनों बहुत मिलकर रेट, अभी नही झगड़ते थे , मई एक बार जो घटना घाटी उसपर भी लिख चुकी हूँ. 
बुआ जी के घर वाकई बेफिक्र थे, वंहा मेरी किसी से स्पर्धा नही थी, शायद इन्ही कारन से, मेरी किसी से कोई आज तक स्पर्धा नही, रही,, शायद मेरी स्पर्धा अपने से ही रही,
बुआ जी के घर का अहसस मुझे जिन्दा रखता है 
गौओं के साथ , पक्षियों के साथ, अपनों के संग उस प्राकृतिक जगह में मई रही, ये समझती रही होंगी , की हमेशा वंही रहूंगी 
बुआ जी की सौत  भी मृत्यु होने के बाद वंहा क वातावरण में बोझिलता आ गयी थी, किन्तु मई अपने खेल व् पढ़ाई में लगी रहती थी कितने प्यारे  ,जब ४ मःतक बारिश होती थी , और हम घरों में रम्यं सुनते , रामायण सुनते थे, जो की शुकनंदन जी गाते थे। 
एक दिन वो भी नही रहे , सब जाने कहा अनजान देश जा रहे थे 
मुनीम जी पेहले ही जा चुके थे 
घर में रहस्यपूर्ण शांति थी , और बुआ जी भाग्य के खेल पर मौन थी, कई बार मुझे वंहा घर में कुछ महसूस होता था , फिर मई डॉ गयी थी, वो दिन बी मई तिजोरी से चाहे जितने पैसे उठकर सिर्फ एक खिलौना लाती थी 
वो, देश परया हो रहा था , वंहा गर्मियों  मई ढेर सारे आम कहती मुझे घंघोड़े हो जाते थे, तब इतनी छोटी थी, की बुआजी कंधों पर उढाये, मुझे रत भर घर में घूमती थी, क्यूंकि मई रोटी थी 
मई स्कुल से क्यारियां  लेकर आई थी , और पेड़ लगाये थे, वंही तुलसी के चबूतरे के इर्द-गिर्द ,जो मेरे जाने के बाद बुआ जी को मेरी याद दिलाते रहे थे 
बुआ जी तब अकेि रह गयी थी, मई बुआ जी के घर से निकल कर आई , पर आज तक जैसे वंही के माहौल में जी रही हूँ, अपने सिमित साधन में भी खुद को कमतर नही मानती 
ये मेरी प्रकृति है, और बेटे की कमिक्स कॉमिक्स जब उठकर दे दी, तब मई नही जान सकी कि मई कितना गलत काम कर रही हूँ 
पितृ पक्ष में मई बुआ जी के उनके जेठ के यंहा जाने पर अकेली थी, बाजु इके किराये वाले दम्पति भी थे , पर मई डॉ गयी थी मई ११ वर्ष की लड़की रत ३ बजे चीखकर उठी थी, बीएस उसी रात ने बुआ जी के घर से मुहे विलग कर दिया था , पर बुआ जी की आत्मा का नेह आज भी मेरे साथ है 
बुआ जी आपके लिए मई कुछ नही कर सकी, बीएस आज भी याद आती है, तो, मई आपके लिए प्रभु का स्मरण करती हूँ बुआजी आपको नही भूल सकती , न डिरोजा को भूलिंगी buaji  तो, दुखों को पीती थी, पर धीरोजा मेरी याद अनेर आनेपर, जोरो से दहाड़ मारकर रोटी , तो सब उसके साथ रोने लगते थे 
धीरोजा जब सड़क झड़ने झाड़ने जाती , तो, याद आते ही, जोरों से रोने लगती , सब दौड़कर आते, क्या हो गया 
धीरोजा बाई,...... 
तो रोकर अहति..... मेरी छोटी बाई जी, याद आ गयी 
सब ऐसे असहाय होकर देखते थे 
फिर धीरोजा मुझसे मिलने बाबूजी के गांव भी आई थी, और, मुझे देखकर उसकी तो, जैसे आँखें जुड़ा गयी थी, मई उसकी ख़ुशी को आजतक अपने भीतर महसूस करती हूँ 
वो, धीरोजा बाई, मई भी तुम्हे बहुत याद करती हूँ फिर उतने प्यारे और अनुकूल लोग मुझे कभी नही मिले 
वो, स्नेह-दुलार मुझे फिर कोई नही दे सका , जो बुआ जी और धीरोजा ने मुझपर लुटाया था