Tuesday 27 August 2013

vnhi kavita, fir se likhti hu

कितना मधुर नाम है
तुम्हारा रेनू
जैसे गूंज रही हो
मन के वृन्दावन में
क्रिशन की वेनू
तुम तो, हो
स्वप्न जगत की
कमनीय कामधेनु
हर वक्त लगा रहता है
तुम्हारे हारों और
मोहल्ले भर की
बालिकाओं का हुजूम
घर गृहस्थी की
आपाधापी में खोकर भी
कब, अकेली रहती हो
तुम
तुम्हारी , घर के कामों में
अस्त-व्यस्तता में भी
निखर उठता है
तुम्हारा सुघड़ सुहाना
रूप अन्यमनस्क सा
उस पर
तुम्हारा मुस्कराता
चंद्रमुख निरखकर
दूर हो जाता है
मन का सारा दुःख 

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