Wednesday 16 September 2015

इस साल तो, वर्ष भी कम हुई , सारे त्यौहार सूखे निकल गए , वर्ष ऐसे हुई जैसे रस्म-अदायगी हो , मन को सब समझते है 
मुझे तब की बारिश की याद आती है, ये कहूँगी, तो, सब कहेंगे , ये बात तो, पुरानी है , दरअसल , वर्ष वर्षा के माघ मेघ जब घुमड़ने लगते थे , तो तभी , बुआ जी के घर काम वालों को जो, खेती में काम करते उन्हें अड्वान्स में धान देते थे , २-३ दिन तो, धान गिनने में लगते , यूँ तो, धान का पट्टन उप्र होता था, किन्तु, जो रज्जन होता, वो धूल जिसे खकना खकाना कहते , पुरे घर भर में उड़ता था, और काम वालों की रेलमपेल लगी होती , जाने बेचारे कैसे अपने दिन बिताते थे, किन्तु, होते बहुत जीवट के थे , और, उनकी वो, म्हणत आज मुझे बहुत कुछ सहने की सकती शक्ति देती है 
आप कहते होंगे, कैसा लिख रही है, 
खैर , उन काम वालों का जीवन बहुत अभावों से भरा था, जाने कितनी कहानियां और इतिहास उनके जीवन भरे अतीत से निकलेंगे , सभी एक अलग किरदार, और, सबके चेहरे पर, निश्छल हंसी। …। 

No comments:

Post a Comment