Thursday 3 September 2015

hnsa jaye akela

मुझे उस वक़्त की याद का वक़्त अब नही मिलता 
सिर्फ वे बिम्ब है, जो स्मृति में उभरते है , कौंधते है 
अतीत जो, इतना ज्यादा बेफिक्र था 
खैर , वंहा मुझे बहुत से किरदार मिले , सभी से स्नेह मिला 
वंहा , कोई मुझे नही डांटता था, न फटकारता था 
मई न तो जिद्दी थी , न ही उत्पति , उत्पत्ति उत्पाती थी ,
मुझे बुआ जी के उतने बड़े घर में अकेले खेलने की आदत हो चली थी बुआ जी की सौत , जिसे सब, छोटी कहते थे , और मेरी बुआ जी को दारुवाली बाई, अर्थात शराब के ठेके होने से ये नाम उन्हें मिला था ,
अब, जब मई थी, ठेका नही था, बुआ जी सिर्फ खेती  का काम नौकरों के भरोसे करवाती थी , अर्थात कृषि कर्म भी था, और स्वभाव भी। बहुत ही साधारण रहते थे, बहुत सम्पदा के बावजूद उथलापन नही थे, ये वे गांव के थे, या तब का ये आचरण था , कि सादा जीवन था 
बहुत शांति रहती थी, सुबह उठकर , जब पीछे के घर में जाती , तो, वंहा अजीब सा धुंवा महसूस होता, उस एकांतवासी घर की वो, अलसुबह आज भी मुझे महसूस होती है 
बुआ जी उठकर, चाय बनाती थी, मुझे दूध पिने की आदत नही थी , हमारे यंहा एक मुनीम जी भी थे 
तब, बुआ जी की सौत थी , ठीक ही था सब कुछ , वक़्त पर खेती के काम होते थे,
मई तब छोटी थी, स्कूल नही जाती थी, वंहा आँगन में एक मेहतरानी आती थी , जो मेरी धाय माँ जैसी थी , वो, मुझे देखते ही, ऐसे कोर्निश सलाम करती थी, जैसे मई राजा हूँ, मुझे इन सब बातों की आदत हो गयी थी , उसका नाम धीरोजा था, मई उसे धीरोजा बाई ही कहती थी, वो मुझे बहुत चाहती थी , जैसे सबके ममत्व का केंद्र मई हो गयी थी , सुबह उठके जब, आँगन में निकलती तो, धीरोजा का इस्नेह पूर्ण उपालम्भ व् कितनी ही बातें जो सबको हंसती सुनने मिलती थी, जैसे वो, हमारे पिछवाड़े के आँगन में कोई प्रातः प्रसारण का जिम्मा संभालती थी , सब, काम वाले उसकी बातें सुनके, हँसते थे , और सुबह हल्की फुलकी हो जाती थी 
पीछे बाड़ी में मूंगे के पेड़ पर कौआ बोलते थे , कांव कांव, जैसे उनका वक़्त होता था हम प्रकृति के संग रहते थे 
बेशक मेरा राजसी व्यवहार इन्ही से बना था, की आज भी मुझे कोई तू, कहे तो, बहुत गुस्सा भी आ जाता है , जाने क्यों 

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