आजकल वर्षा रुक कर होती है , जैसे थोड़ा सा सुस्ताने लगते है, उनके पास देने को नही होता , मेघों का भंडार चूक जाता है , रीता रह जाता है। लेकिन पहले वे बदल बरसते थे, बरसते जाते थे , मेघ मल्हार गूंजता था, वर्षा राग और, प्रकृति की अलमस्त रागिनी से दिन रात जैसे गूंजा करते थे.
जब पावस घर की ओरनियों ,छतो, आँगन, पेड़ों, पत्तीओं , और, फुनगिों पर बरसता था, जैसे सबका मन सरसता था, एक समरसता थी जीवन में, झड़-झंखाड़ , खरपतवार , मेहँदी के हरे पत्तों को पिस्ता , मसलता , सावन रच जाता था , सबके मन और जीवन मे. गौरय्या की तेर , देर-सबीर, तिहुँकती , टिटिहरी , और मूंगे पर कौंवे की कांव कांव से गूंजता जगता, अल्सभोर. पेड़ों पर कुनमुनाते , पखेरुनों का गुनगुनाना , और बुआ जी उठकर , चूल्हा जला कर, सामने जब कुल्ला लर रही होती, तब गली में अँधेरा होता, तब बसंता एक धुंधली छाया सी,आते दिखती, सर पर, गोबर की टोकरी रखे , इसका मतलब ये नही की वे गरीब थे, बहुत जमीने होती, जायदाद थी, पर म्हणत से जीवन जीते , वो कृषक संस्कृति थि. घर आँगन से लेकर ढोलों तक अनाज भरा व् बिखरा होता। बहुत से औरतें उसे झड़-पछोर कर रखती थी।
किसान की बेटी -भतीजी हूँ, जब भी लिखती हूँ, खेती व् खलिहानों की जिंदगी लिखती हुँ. लिखती हूँ, की जीविका के साधन क्या थे , आज भी प्रधान मंत्री जी को लिखती हूँ, की हमारी संस्कृति कृषि की थि. हम पढ़ -लिख कर यदि कृषि-प्रबंधन करे, देश को कभी भी अनाज की कमी नही जा सकती, इन्ही, मई राष्ट्रपति जी को लिखुँगी. देश से विदेश जाने के पहले , एक बार देख तो, लो मेरे उस देश को जो ५००० वर्षों से समृद्धि का इतिहास रहा है, जन्हा मंदिरों के शिखर स्वर्णजड़ित रहे है.ese हीरे मोतियों से भरे इस देश के रमणीक तटों पर, जो संस्कृति थी, वो दलालों की नही , खेती करने वालों की थि. थी तब, आज ये चोरों व् चाटुकारों का देश कैसे हो गया , ये सोचना हगा, जन्हा ताले घरों में नही लगते थे , वो, अकर्मणयों का देश कैसे हो गया। ये कर्मठ राग आज आरक्षण राग में कैसे बदल गया। क्या हमने वेदों को छिपकर , कंही अपनी शक्ति को तो, बंधन में नही डाला , हमें अपनी वो, ज्ञान सम्पदा को फिरसे सामने लाना होगा, और पोंगा-पंथ को मिटा कर वास्तविक ज्ञान को खोजना होगा। ऐसे आधार में विश्व-गुरु नही बन जाया करते, पहले अपनी विद्या को पता करो, कहा वह छिप गयी है, ऋषियों की ज्ञान-सम्पदा कहा बिला ग्यि…ये ये , अनुसंधान का विषय
जब पावस घर की ओरनियों ,छतो, आँगन, पेड़ों, पत्तीओं , और, फुनगिों पर बरसता था, जैसे सबका मन सरसता था, एक समरसता थी जीवन में, झड़-झंखाड़ , खरपतवार , मेहँदी के हरे पत्तों को पिस्ता , मसलता , सावन रच जाता था , सबके मन और जीवन मे. गौरय्या की तेर , देर-सबीर, तिहुँकती , टिटिहरी , और मूंगे पर कौंवे की कांव कांव से गूंजता जगता, अल्सभोर. पेड़ों पर कुनमुनाते , पखेरुनों का गुनगुनाना , और बुआ जी उठकर , चूल्हा जला कर, सामने जब कुल्ला लर रही होती, तब गली में अँधेरा होता, तब बसंता एक धुंधली छाया सी,आते दिखती, सर पर, गोबर की टोकरी रखे , इसका मतलब ये नही की वे गरीब थे, बहुत जमीने होती, जायदाद थी, पर म्हणत से जीवन जीते , वो कृषक संस्कृति थि. घर आँगन से लेकर ढोलों तक अनाज भरा व् बिखरा होता। बहुत से औरतें उसे झड़-पछोर कर रखती थी।
किसान की बेटी -भतीजी हूँ, जब भी लिखती हूँ, खेती व् खलिहानों की जिंदगी लिखती हुँ. लिखती हूँ, की जीविका के साधन क्या थे , आज भी प्रधान मंत्री जी को लिखती हूँ, की हमारी संस्कृति कृषि की थि. हम पढ़ -लिख कर यदि कृषि-प्रबंधन करे, देश को कभी भी अनाज की कमी नही जा सकती, इन्ही, मई राष्ट्रपति जी को लिखुँगी. देश से विदेश जाने के पहले , एक बार देख तो, लो मेरे उस देश को जो ५००० वर्षों से समृद्धि का इतिहास रहा है, जन्हा मंदिरों के शिखर स्वर्णजड़ित रहे है.ese हीरे मोतियों से भरे इस देश के रमणीक तटों पर, जो संस्कृति थी, वो दलालों की नही , खेती करने वालों की थि. थी तब, आज ये चोरों व् चाटुकारों का देश कैसे हो गया , ये सोचना हगा, जन्हा ताले घरों में नही लगते थे , वो, अकर्मणयों का देश कैसे हो गया। ये कर्मठ राग आज आरक्षण राग में कैसे बदल गया। क्या हमने वेदों को छिपकर , कंही अपनी शक्ति को तो, बंधन में नही डाला , हमें अपनी वो, ज्ञान सम्पदा को फिरसे सामने लाना होगा, और पोंगा-पंथ को मिटा कर वास्तविक ज्ञान को खोजना होगा। ऐसे आधार में विश्व-गुरु नही बन जाया करते, पहले अपनी विद्या को पता करो, कहा वह छिप गयी है, ऋषियों की ज्ञान-सम्पदा कहा बिला ग्यि…ये ये , अनुसंधान का विषय
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