Sunday, 29 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: विगत को आज में नही ल सकते , दोनों अलग है बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ ...
hnsa jaye akela
विगत को आज में नही ल सकते , दोनों अलग है
बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ थे, पीछे एक और बाड़ी थी, मुनगे के पेड़ के पास था, सेमल का पेड़, कबसे उसके कापसी उड़ते लाल फूलों को मैंने घर-बाहर उड़ते देखा था, बहुत अच्छा लगता था, इधर-उधर से खेलकर लौटकर बुआजी की गोदी में घुस जाती थी, जब बुआ जी सामने छपरी में अपनी जगह पर बैठकर सबसे बातें करती होती, तो, मई उनके आसपास खेल रही होती थी, हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो खेती करने वालों का था, बाद में आजकल, उन्होंने दुकाने डाल ली है, खेती अब फूल टाइम जॉब नही रहा , हमे लिखते समय हमेशा सभी के जीविका का स्त्रोत जरूर लिखना होगा। इन्ही सच है
हमारे घर आनेवालों को क्या मिलता रहा होगा, आज कामके लिए कोई नही आता , मजदूरी हम नही दे सकते , घर बनाने में लाखों रूपये लग गए, क्यूंकि, मजदूरी ही लाखो लगी, ये तब नही था , इश्लीए, आज किसान आत्महत्या कर रहे है, वे १५० रूपये रोजी के मजदूर कहा से लए , जबकि धान का मूल्य वंही है
तब, कृषि जीवन-पद्धति थी, आज बिज़नेस क्लास है, और है, मार्केटिंग, आप आज क्या बेचोगे , लोग रूप और रिश्ते बेच रहे है,
कोई भी मैनेजर है, सिर्फ बेचना है, एक देश जो उत्पादक था, अब बाजार है, खैर
मेरा बचपन बहुत प्यारा न्यारा था, क्यूंकि , मुझे कोई काम नही करना होता, राजकुमारी जैसी मई सभी के स्नेह की व् आदर की पात्र थी , हमारे घर आनेवाले, मुझे बहुत लाड़ से बतियाते थे।
पर मई न तो, कभी सिरचढ़ी हो सकी न, ही, अहंकारी , मुझे घी-रोटी खाने में ही संतोष मिल जाता था, अलबत्ता रोज २-३ बजे अपरान्ह को पासके चौक से मई सेव-चिवड़ा लेकर कहती थी, और जब जेब में न रखकर , हाथों में हो रखकर लाती तो, कौवे मुझसे सेव-चिवड़ा चीन लेते, तब वंही बैठकर रह में रोटी-मचलती थी।
मुझे याद है, मेरा प्रिय सेव-चिवड़ा कौवे कहते तो, मई बहुत खीजती थी, ये लेकिन रोज ही होता था , क्यूंकि, उसे घरतक लेकर खाने का धैर्य मुझमे कहा था, मई रस्ते में कहती, और कौवे रोज मुझसे छीनते थे
ये सब लिखते समय उस वक़्त की ज्यादा कोई भावना अब नही आ रही , है, क्यूंकि दुनिया ने मुझसे बहुत चीन-छपट्टी की है
बुआ जी के घर शांझ बहुत अच्छी लगती थी, जब, हमारी कबरई गाय चरकर आती, वो हुलसती हुई आती, और बुआजी, उसके लिए जो ठाँव रखती थी, उसे देती थी, और उसपर हाथ फेरती थी,ये थी गौओं की सेवा , तब गौएँ जब बूढी होती, तब भी हमारे घरके कोठे में रहती थी, मरते डैम तक उन्हें चारा -पानी देते थे, इसके लिए चरवाहा था, जिसे हम भास्कि भासकी की कहते थे।
बहुत प्यारे दिन थे, सुबह अलसुबह भोर में कौवे बोलते थे, फिर चिड़ियों की चहचहाट होती थी , बसंता सामने सर पर टोकरा लिए आती थी, जो अपने कोठे से गोबर फेकती थी, उसकी कितनी साड़ी जमीं थी, घर उधर और सामने बाड़ी में होती थी, बाड़ी, जन्हा अब बहुत सारी दुकानें है , सोचिये, आज क्या हम गोबर फेंक सकती है, जबकि हमारे पास कुछ नही, उन्सब्के जितना
एक बार मुझे पोस्टऑफिस में एक आदमी मिला, और मुझसे बोला, आप हट्टा में दारुवाली बाई के यंहा रहती थी, न मैंने आश्चर्य से हाँ कहा , वो, बताने लगा, मेरी बुआ जी के बारे में कि वे कितने बड़े लोग थे, उसीने मुझे बताया की, हमारी बुआ जी के घरसे जो मंदिर बनाया गया था , उसे ५ एकड़ जमीन दान में दी गयी थी ,
ओह, मेरा मुख खुला का खुला रह गया , बुआजी ने ये बात हमसे कभी नही कही थी, कि उनके परिवार से कितना दान दिया गया था , ये बात मुझे उनकी मृत्यु के बरसों बाद पता चली थी
सोचती हूँ, कितने बड़े थे, वे लोग, जिन्होंने १० कुंए बनवाने से लेकर सभी बड़े दान-पुण्य की बात कभी अपने मुख से नही कही, आजतो, लोग मंदिर में पत्थर लगाकर, अपना नाम लिखना नही भूलते ये भी कि मेरे घर में कह दिया गया था,कि बुआ जी की लाड़ली होकर भी, मुझे उनसे कुछ नही लेना है, और मैंने बुआ जी से एक एकड़ जमीन तक नही ली, लेकिन जिन्हे बुआ जी ने अपनी अथाह सम्पत्ति दी, उन्होंने बुआजी को तड़पा-तड़पा के मार डाले थे
बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ थे, पीछे एक और बाड़ी थी, मुनगे के पेड़ के पास था, सेमल का पेड़, कबसे उसके कापसी उड़ते लाल फूलों को मैंने घर-बाहर उड़ते देखा था, बहुत अच्छा लगता था, इधर-उधर से खेलकर लौटकर बुआजी की गोदी में घुस जाती थी, जब बुआ जी सामने छपरी में अपनी जगह पर बैठकर सबसे बातें करती होती, तो, मई उनके आसपास खेल रही होती थी, हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो खेती करने वालों का था, बाद में आजकल, उन्होंने दुकाने डाल ली है, खेती अब फूल टाइम जॉब नही रहा , हमे लिखते समय हमेशा सभी के जीविका का स्त्रोत जरूर लिखना होगा। इन्ही सच है
हमारे घर आनेवालों को क्या मिलता रहा होगा, आज कामके लिए कोई नही आता , मजदूरी हम नही दे सकते , घर बनाने में लाखों रूपये लग गए, क्यूंकि, मजदूरी ही लाखो लगी, ये तब नही था , इश्लीए, आज किसान आत्महत्या कर रहे है, वे १५० रूपये रोजी के मजदूर कहा से लए , जबकि धान का मूल्य वंही है
तब, कृषि जीवन-पद्धति थी, आज बिज़नेस क्लास है, और है, मार्केटिंग, आप आज क्या बेचोगे , लोग रूप और रिश्ते बेच रहे है,
कोई भी मैनेजर है, सिर्फ बेचना है, एक देश जो उत्पादक था, अब बाजार है, खैर
मेरा बचपन बहुत प्यारा न्यारा था, क्यूंकि , मुझे कोई काम नही करना होता, राजकुमारी जैसी मई सभी के स्नेह की व् आदर की पात्र थी , हमारे घर आनेवाले, मुझे बहुत लाड़ से बतियाते थे।
पर मई न तो, कभी सिरचढ़ी हो सकी न, ही, अहंकारी , मुझे घी-रोटी खाने में ही संतोष मिल जाता था, अलबत्ता रोज २-३ बजे अपरान्ह को पासके चौक से मई सेव-चिवड़ा लेकर कहती थी, और जब जेब में न रखकर , हाथों में हो रखकर लाती तो, कौवे मुझसे सेव-चिवड़ा चीन लेते, तब वंही बैठकर रह में रोटी-मचलती थी।
मुझे याद है, मेरा प्रिय सेव-चिवड़ा कौवे कहते तो, मई बहुत खीजती थी, ये लेकिन रोज ही होता था , क्यूंकि, उसे घरतक लेकर खाने का धैर्य मुझमे कहा था, मई रस्ते में कहती, और कौवे रोज मुझसे छीनते थे
ये सब लिखते समय उस वक़्त की ज्यादा कोई भावना अब नही आ रही , है, क्यूंकि दुनिया ने मुझसे बहुत चीन-छपट्टी की है
बुआ जी के घर शांझ बहुत अच्छी लगती थी, जब, हमारी कबरई गाय चरकर आती, वो हुलसती हुई आती, और बुआजी, उसके लिए जो ठाँव रखती थी, उसे देती थी, और उसपर हाथ फेरती थी,ये थी गौओं की सेवा , तब गौएँ जब बूढी होती, तब भी हमारे घरके कोठे में रहती थी, मरते डैम तक उन्हें चारा -पानी देते थे, इसके लिए चरवाहा था, जिसे हम भास्कि भासकी की कहते थे।
बहुत प्यारे दिन थे, सुबह अलसुबह भोर में कौवे बोलते थे, फिर चिड़ियों की चहचहाट होती थी , बसंता सामने सर पर टोकरा लिए आती थी, जो अपने कोठे से गोबर फेकती थी, उसकी कितनी साड़ी जमीं थी, घर उधर और सामने बाड़ी में होती थी, बाड़ी, जन्हा अब बहुत सारी दुकानें है , सोचिये, आज क्या हम गोबर फेंक सकती है, जबकि हमारे पास कुछ नही, उन्सब्के जितना
एक बार मुझे पोस्टऑफिस में एक आदमी मिला, और मुझसे बोला, आप हट्टा में दारुवाली बाई के यंहा रहती थी, न मैंने आश्चर्य से हाँ कहा , वो, बताने लगा, मेरी बुआ जी के बारे में कि वे कितने बड़े लोग थे, उसीने मुझे बताया की, हमारी बुआ जी के घरसे जो मंदिर बनाया गया था , उसे ५ एकड़ जमीन दान में दी गयी थी ,
ओह, मेरा मुख खुला का खुला रह गया , बुआजी ने ये बात हमसे कभी नही कही थी, कि उनके परिवार से कितना दान दिया गया था , ये बात मुझे उनकी मृत्यु के बरसों बाद पता चली थी
सोचती हूँ, कितने बड़े थे, वे लोग, जिन्होंने १० कुंए बनवाने से लेकर सभी बड़े दान-पुण्य की बात कभी अपने मुख से नही कही, आजतो, लोग मंदिर में पत्थर लगाकर, अपना नाम लिखना नही भूलते ये भी कि मेरे घर में कह दिया गया था,कि बुआ जी की लाड़ली होकर भी, मुझे उनसे कुछ नही लेना है, और मैंने बुआ जी से एक एकड़ जमीन तक नही ली, लेकिन जिन्हे बुआ जी ने अपनी अथाह सम्पत्ति दी, उन्होंने बुआजी को तड़पा-तड़पा के मार डाले थे
Thursday, 26 November 2015
bnaras ki byar: is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upy...
bnaras ki byar: is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upy...: तू शब्दों से परे एक अहसास इतनी खबसूरत जैसे फागुनी पलाश ऐसी मदमाती जैसे शिशिर में फूला हो पलाश तेरा आना जीवन में लगता है ...
is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upyog meri ijajat se hi kre
तू
शब्दों से परे
एक अहसास
इतनी खबसूरत
जैसे फागुनी पलाश
ऐसी मदमाती
जैसे शिशिर में
फूला हो पलाश
तेरा आना जीवन में
लगता है
ज्यूँ लगा हो मधुमास
तेरी बातें ऐसी
मानो तरंगित हो उल्लास
तू है , जन्हा लगता है
सितारों से जगमगाता आकाश
ए , परी , ए अप्सरा
वंहा कंही स्वर्ग होगा
जन्हा होगी तू , तेरे आसपास
मेरे जख्मी दिल की
तू ही तो है , अबुझ प्यास
शब्दों से परे
एक अहसास
इतनी खबसूरत
जैसे फागुनी पलाश
ऐसी मदमाती
जैसे शिशिर में
फूला हो पलाश
तेरा आना जीवन में
लगता है
ज्यूँ लगा हो मधुमास
तेरी बातें ऐसी
मानो तरंगित हो उल्लास
तू है , जन्हा लगता है
सितारों से जगमगाता आकाश
ए , परी , ए अप्सरा
वंहा कंही स्वर्ग होगा
जन्हा होगी तू , तेरे आसपास
मेरे जख्मी दिल की
तू ही तो है , अबुझ प्यास
Sunday, 22 November 2015
hnsa jaye akela
कोई
कोई ये न सोचे कि मई पैसे वाली हूँ
दरअसल लिखने की तलब मई सबकुछ भूल जाती हूँ
ये भी कि मई कोई पैसे वाली नही
बीएस लिखने की धुन रहती हैं
पुराने दिनों को कुरेदती हूँ
जैसे कोई। ………। जाने
बुआ जी के यंहा से ही गीतों से गया , हालाँकि मई गायिका नहीं , पर सुनने की हमेशा कोशिश होती हैं
वो जो भेटनी के उनमें एक गीत सबका सरताज था, जो सभी औरतें गाती थी विवाह में तो, जैसे मिलकर गाती थी, वो बहुत अद्भुत होता था, जैसे उनकी ह्रदय की रागिनी गूंजती थी
वो गीत था , जो वे लहकते हुए गाती थी
हम पर्देशिन माई पहुनिन ओ
झूला की झुलनवाली उड़ चली ओ और झूला पढ़ा बनवान
मेरी माई ओ, हम परदेशिन मई पहुंिन ओ
(अर्थात, हम तो , परदेश जाने वाली मेहमान है, माँ
जो, तेरे घर -आँगन में खेलती और झूला झूलती थी , वो अब दूर जा रही है , ऐसा गाते हुए, औरतें तो रोती थी, साथ में दुल्हन भी अपनी बहन व् माँ के गले लगकर रोती जाती थी, इसे ही भेटनी कहते थे , आगे भी उनका जीवन कष्ट -पूर्ण होता था, कहीं सुख तो, कंही दुःख होता था )
मुझे आज भी ओ गीत गाने का मन होता है, तो मई अकेले ही इसे गुनगुनाते हुए, बीते वक़्त को याद करती हूँ )
हम पर्देशिन माई पहुंिन ओ
तेरी आँगन की खेलन वाली उड़ चली ओ, और आँगन परो बनवान , मोरी माई ओ..........
(एक और बात याद आ रही है , ये गीत जब हम सब बहनें पीहर में थी , तो, हम सबके लिए हंसी -मजाक का भी पर्याप् था, हम सब हँसते हुए इसे गाती थी ,कि कैसे सब गांव वाली इसे गाती है, खासकर , मेरी दो छोटी बहनें तो ,इसपर बहुत हंसती, और एक -दूसरे को चिड़ाहटी भी थी )
कोई ये न सोचे कि मई पैसे वाली हूँ
दरअसल लिखने की तलब मई सबकुछ भूल जाती हूँ
ये भी कि मई कोई पैसे वाली नही
बीएस लिखने की धुन रहती हैं
पुराने दिनों को कुरेदती हूँ
जैसे कोई। ………। जाने
बुआ जी के यंहा से ही गीतों से गया , हालाँकि मई गायिका नहीं , पर सुनने की हमेशा कोशिश होती हैं
वो जो भेटनी के उनमें एक गीत सबका सरताज था, जो सभी औरतें गाती थी विवाह में तो, जैसे मिलकर गाती थी, वो बहुत अद्भुत होता था, जैसे उनकी ह्रदय की रागिनी गूंजती थी
वो गीत था , जो वे लहकते हुए गाती थी
हम पर्देशिन माई पहुनिन ओ
झूला की झुलनवाली उड़ चली ओ और झूला पढ़ा बनवान
मेरी माई ओ, हम परदेशिन मई पहुंिन ओ
(अर्थात, हम तो , परदेश जाने वाली मेहमान है, माँ
जो, तेरे घर -आँगन में खेलती और झूला झूलती थी , वो अब दूर जा रही है , ऐसा गाते हुए, औरतें तो रोती थी, साथ में दुल्हन भी अपनी बहन व् माँ के गले लगकर रोती जाती थी, इसे ही भेटनी कहते थे , आगे भी उनका जीवन कष्ट -पूर्ण होता था, कहीं सुख तो, कंही दुःख होता था )
मुझे आज भी ओ गीत गाने का मन होता है, तो मई अकेले ही इसे गुनगुनाते हुए, बीते वक़्त को याद करती हूँ )
हम पर्देशिन माई पहुंिन ओ
तेरी आँगन की खेलन वाली उड़ चली ओ, और आँगन परो बनवान , मोरी माई ओ..........
(एक और बात याद आ रही है , ये गीत जब हम सब बहनें पीहर में थी , तो, हम सबके लिए हंसी -मजाक का भी पर्याप् था, हम सब हँसते हुए इसे गाती थी ,कि कैसे सब गांव वाली इसे गाती है, खासकर , मेरी दो छोटी बहनें तो ,इसपर बहुत हंसती, और एक -दूसरे को चिड़ाहटी भी थी )
Friday, 20 November 2015
,गीतों का चलन आजकल नही रहा है, नही गाते , पर जो उसवक्त औरतें गाती थी
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
hnsa jaye akela
भेटनी के हमारी जाति के गीत भी बहुत मार्मिक थे , थे इश्लीए की अब उन्हें कोई नही गाता , जो गाती थी, वे स्त्रियां अब जीवित नही हैं , कुछ भेटोनी के गीत लिख हूँ
हम चले माई हम चले , मोरी माई हम चले , पारुल देश
साकार को मोंगरा मोरी माई दहे दहे
मोरी माई दोपहरी गए ओ कुम्हलाये
मयके की बेटी मोरी माई दहे दहे
ससुराल में गयी ओ कुम्हलाये
छोटे से मुंह की माई घ्येली
मोरी बहनी, हिल मिल, पनिया जाए
फुटन लगी माई घ्येली
मोरी बहनी छुटन लगे ओ साथ
कुम्हार जुड़ाबो माई घ्येली
मायके में जुड़ाबो साथ
ये गीत गाते हुए , गांव की औरतें तब रोने लगती थी
अब, न चावल में सुगंध रही
न ही गाँवो में वो आत्मीय स्त्रियां रही
रिश्ते-नाते भी बिखरना लगे है
वे सब बाल-विवाह में कैसे ससुराल आती थी
और, कैसे जीवन करती थी कितना काम, कितनी मर्यादा
सब निभाती थी , बातें सुनती थी, म्हणत करते जीवन गुजरता था
जब बुआ जी की दहलीज ड्योढ़ी में रात रात तक गाने गाती थी
फिर बहुत देर तक चुप बैठकर, पीहर की याद कर अपनी आँखे पोंछ लेती थी
वो, वक़्त बहुत जाहिं था
वे सब सुबह से शाम तक घर, ओसारे के काम में लगी रहती थी
हम चले माई हम चले , मोरी माई हम चले , पारुल देश
साकार को मोंगरा मोरी माई दहे दहे
मोरी माई दोपहरी गए ओ कुम्हलाये
मयके की बेटी मोरी माई दहे दहे
ससुराल में गयी ओ कुम्हलाये
छोटे से मुंह की माई घ्येली
मोरी बहनी, हिल मिल, पनिया जाए
फुटन लगी माई घ्येली
मोरी बहनी छुटन लगे ओ साथ
कुम्हार जुड़ाबो माई घ्येली
मायके में जुड़ाबो साथ
ये गीत गाते हुए , गांव की औरतें तब रोने लगती थी
अब, न चावल में सुगंध रही
न ही गाँवो में वो आत्मीय स्त्रियां रही
रिश्ते-नाते भी बिखरना लगे है
वे सब बाल-विवाह में कैसे ससुराल आती थी
और, कैसे जीवन करती थी कितना काम, कितनी मर्यादा
सब निभाती थी , बातें सुनती थी, म्हणत करते जीवन गुजरता था
जब बुआ जी की दहलीज ड्योढ़ी में रात रात तक गाने गाती थी
फिर बहुत देर तक चुप बैठकर, पीहर की याद कर अपनी आँखे पोंछ लेती थी
वो, वक़्त बहुत जाहिं था
वे सब सुबह से शाम तक घर, ओसारे के काम में लगी रहती थी
Wednesday, 18 November 2015
hnsa jaye akela
सब जैसे कंही जा रहे है, दूर अपने वतन से , अपनी धरती से ,तब मई बुआ जी के उस अतीत के घर के घूरो को याद कर रही हूँ, वो, घूरो जन्हा गौओं का गोबर फेंकते थे , जो गोबर उठाते थे , उनकी दयनीय जिंदगी में मनो-मालिन्य नही था। हम बरसों के बाद पते है, कि वे कामवाली अब नही है, अब उन्हें अधिकार मिल गए है. तब वे प्रातः से आते थे, हमारे घर में बिस्तर उठाने से लेकर बिस्तर बिछाने तक का काम वे कामवाली करते थे, सच समझा, और आज कंही के नही है
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
Tuesday, 17 November 2015
hnsa jaye akela
बुआजी के घर से जैसे आजतक नही निकली हूँ , कल-परसों जब डॉ, सुनीता मनु का संस्मरण पढ़ रही थी, तो आंसू बहने लगे थे, और मई भी वैसा ही लिखना चाहती हूँ
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
Sunday, 15 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: आज वक़्त है, कि कुछ लिखूं, क्या पता कल वक़्त मिले न मिले आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी ...
hnsa jaye akela
आज वक़्त है, कि कुछ लिखूं, क्या पता कल वक़्त मिले न मिले
आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी
बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी यादें भी क्या खूबी है, कि हमें सब कुछ जब याद आता है, तो हम रजाई में दुबके बीते दिनों को याद करते है
आज की , पीढ़ी को ये सब नही रहा , क्यूंकि, उन्हें जिंदगी का सच झेलना है , आज वैसी रीडिंग का वक़्त नही मिल रहा है . ये सही है, की ब्लॉग लिखे जा रहे है
मुझे भी बुआ जी के घर से आज भी उरह्जा मिलती है वंहा का शांत माहौल मुझे खेलने व् पढ़ने के अनुकूल था
वंहा सब काम नौकर व् कामवाली करते थे , बुआ जी के घर रही तबतक , कुछ काम नही आता था , आज भी बहुत से कामो का आलास आता है, अध्ययन व् लिखना ही पसंद है, पर आर्थिक सत्य भी तो है
जिंदगी जीने पैसा होना , मई जो लिखती हूँ , उसका मुझे कुछ हासिल नही होता ,
अब अपने को लेखिका के साथ सोशल वर्कर भी कहना चाहती हूँ
और, ये अपने लेटर हेड में भी लिखूंगी
जिंदगी भर कुछ न कुछ करने का वाद जिंदगी से किया है, देखे,
मानती हूँ , की कोई शक्ति मुझसे ये करवाती है , तभी तो, मैंने सोचा है, कि मैं इंडिया रिफॉर्म्स रेसोलुशन चलाऊंगी , हमे लोकतंत्र का पथ यंहा के रहवासियों को पढ़ना है, तभी हम डेमोक्रेसी की रक्षा कर सकेंगे
अभी ये हंस कहा तक क्या करता है, देखे यंहा, लिखने में बहुत, डिस्टर्ब होता रहा, जो छह रही थी,नही लिख सकी
जब डूबकर लिखती हूँ, तो वो कुछ और ही होता है
आज इतना ही, रोज का वादा है, लिखने का
आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी
बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी यादें भी क्या खूबी है, कि हमें सब कुछ जब याद आता है, तो हम रजाई में दुबके बीते दिनों को याद करते है
आज की , पीढ़ी को ये सब नही रहा , क्यूंकि, उन्हें जिंदगी का सच झेलना है , आज वैसी रीडिंग का वक़्त नही मिल रहा है . ये सही है, की ब्लॉग लिखे जा रहे है
मुझे भी बुआ जी के घर से आज भी उरह्जा मिलती है वंहा का शांत माहौल मुझे खेलने व् पढ़ने के अनुकूल था
वंहा सब काम नौकर व् कामवाली करते थे , बुआ जी के घर रही तबतक , कुछ काम नही आता था , आज भी बहुत से कामो का आलास आता है, अध्ययन व् लिखना ही पसंद है, पर आर्थिक सत्य भी तो है
जिंदगी जीने पैसा होना , मई जो लिखती हूँ , उसका मुझे कुछ हासिल नही होता ,
अब अपने को लेखिका के साथ सोशल वर्कर भी कहना चाहती हूँ
और, ये अपने लेटर हेड में भी लिखूंगी
जिंदगी भर कुछ न कुछ करने का वाद जिंदगी से किया है, देखे,
मानती हूँ , की कोई शक्ति मुझसे ये करवाती है , तभी तो, मैंने सोचा है, कि मैं इंडिया रिफॉर्म्स रेसोलुशन चलाऊंगी , हमे लोकतंत्र का पथ यंहा के रहवासियों को पढ़ना है, तभी हम डेमोक्रेसी की रक्षा कर सकेंगे
अभी ये हंस कहा तक क्या करता है, देखे यंहा, लिखने में बहुत, डिस्टर्ब होता रहा, जो छह रही थी,नही लिख सकी
जब डूबकर लिखती हूँ, तो वो कुछ और ही होता है
आज इतना ही, रोज का वादा है, लिखने का
Saturday, 14 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: आज से ये फिरसे लिख रही हूँ, क्या है , कि , हंसा जाये अकेला को, किसी ने शरारत में हमसा जाये अकेला कर दिया था , मुझे ये भी पता है,, की ये नतत...
hnsa jaye akela
आज से ये फिरसे लिख रही हूँ, क्या है , कि , हंसा जाये अकेला को, किसी ने शरारत में हमसा जाये अकेला कर दिया था , मुझे ये भी पता है,, की ये नततपन शरारत कौन किये है, खैर, ईश्वर उसे सलामत रखे
आजकल, मई बहुत सारा लिखना छटी हूँ, लेकिन क्या लिखू, जो, घर में सोचा था , वो यंहा खुल जाती हु,
और गलतियों की भरमार रहती है, इश्लीए , मेरे ब्लॉग नही उठते , पर मई हिम्मत नही हारती।
सोचा है, जो रोज करती हूँ, वंही लिखूंगी, और जब आज कीखबर , देखि तो, सन्न रह गयी, पूरी दुन्या
दुनिया जैसे बारूद के ढेर को सजाये बैठी है. दिवाली में इंडिया के साथ फ़्रांस में फटके नही बम फोड़ रहे है, आतंकी , ये वाकई दुखद है।
ये जो कटटरता से धर्म का इजहार करते है, उसकी परिणति है. हिन्दुओ ने तो ११ वि सदी के पहले से आतंक झेले हा, कल्पना नही कर सकते , की उसवक्त विदेशी हमले से जनता कितनी लूटी व् मारी गयी थी
(क्रमश)
आजकल, मई बहुत सारा लिखना छटी हूँ, लेकिन क्या लिखू, जो, घर में सोचा था , वो यंहा खुल जाती हु,
और गलतियों की भरमार रहती है, इश्लीए , मेरे ब्लॉग नही उठते , पर मई हिम्मत नही हारती।
सोचा है, जो रोज करती हूँ, वंही लिखूंगी, और जब आज कीखबर , देखि तो, सन्न रह गयी, पूरी दुन्या
दुनिया जैसे बारूद के ढेर को सजाये बैठी है. दिवाली में इंडिया के साथ फ़्रांस में फटके नही बम फोड़ रहे है, आतंकी , ये वाकई दुखद है।
ये जो कटटरता से धर्म का इजहार करते है, उसकी परिणति है. हिन्दुओ ने तो ११ वि सदी के पहले से आतंक झेले हा, कल्पना नही कर सकते , की उसवक्त विदेशी हमले से जनता कितनी लूटी व् मारी गयी थी
(क्रमश)
Tuesday, 10 November 2015
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