चलो आज तुम तुरत में लिखी कविता देखो
तुम साँझ के झुरमुट में
घर की देहरी पर
कल, इसे भीगी भीगी पहुंची
तुम्हारा अंचल भीगा था
किन्तु तुम्हारा मुखड़ा
जल्दी जल्दी चलने से
कैसा स्वेद मय हो रहा था
कितनी चंचल लग रही थी
तुम्हारी बांकी चितवन
तुम जैसे साँस लेती
अपने कक्ष में पहुंची थी
जाने क्योंकर लजाई हुयी
इठलाई हुयी
थकी होकर भी
कुछ अलमस्त सी
आगे। .तुम खुद जानो
हिरनिया। ।क्या
ये झूठ है , सच
कह दो, न
तुम साँझ के झुरमुट में
घर की देहरी पर
कल, इसे भीगी भीगी पहुंची
तुम्हारा अंचल भीगा था
किन्तु तुम्हारा मुखड़ा
जल्दी जल्दी चलने से
कैसा स्वेद मय हो रहा था
कितनी चंचल लग रही थी
तुम्हारी बांकी चितवन
तुम जैसे साँस लेती
अपने कक्ष में पहुंची थी
जाने क्योंकर लजाई हुयी
इठलाई हुयी
थकी होकर भी
कुछ अलमस्त सी
आगे। .तुम खुद जानो
हिरनिया। ।क्या
ये झूठ है , सच
कह दो, न
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