Tuesday 15 December 2015
bnaras ki byar: swarn-champa
bnaras ki byar: swarn-champa: swarn-champ tumne chandrma se mukhde pr ghunghat kyun nhi dala tum jidhar se nikli udhar se lutke le gyi kjrari ankhiyon se chaman sa...
Sunday 13 December 2015
Friday 11 December 2015
वो जो नशा है , नही उतरता आज तक, तब जो पढ़ती थी , वह दिमाग में रच-बस गया है, जिंदगी ने बहुत रंग बदले है, पर वो रंग नही उतरता है
घर से स्कूल के बाद पसंदीदा जगह थी, वो, घर की बाड़ी थी, और खलिहान था, जन्हा मई पढ़ती थी, चना , तुअर के पढ़ना , और अमराई में से एक महसूस करना
वंही अपने साहित्य को मैंने अपना लिया , मुझे नही पता था, कि ज्ञान को करेंसी में कैसे बदलते है
मेरे इये लिए जिंदगी का मतलब था, पढोलिखो
फिर मुझे ८थ कक्षा ग्रामीण छात्रवृति हेतु चयन किया गया तो , बालाघाट जाना पड़ा, जन्हा मैंने bscतक की पढ़ाई की, कविता लिखना ८ वि से शुरू हुआ और बिना किसी के मार्गदर्शन के मुझे कहानी िखने का रोग लग गया , ये ऐसी आदत थी, की जिसे मैंने नही जाना, कि इससे कोई पैसा मिलेगा या नही, बीएस क्लास की पढ़ाई फिर अपने कविता कहानी की अलग दुनिया
जिसे कहते है, कि गयी काम से
या लिखने में गई तो, कोई काम की नही रही , बलाघात से मई llbकरने नागपुर गयी , वंही मेरा शादी के लिए चयन हो गया , चयन इसलिए कि ये भी एक जॉब था, उर मई अपनी लॉ की पढ़ाई, और नई गृहस्थी में तालमेल बिठालती रही, जो आजतक जारी है
भी थी, जो भी हस्र था , जो भी ष्ण था,, मैंने हमेशा सबसे अच्छा करना है, ये जीवन की ,इन्ही समझा
रात दिन म्हणत की , psc & cj की एग्जाम में लगी, बीटा चूका था, घर में देते थे, पीटीआई के ईटा ने जिन हराम कर रखा था, वह सब लिखने से लड़कियों का मन भयभीत होता है, इसलिए भुला कर की बातें लिखना चाहूंगी , कि जब मई सेवा के लिए लिखित व् साक्षात्कार में अव्वल आई, इर भी मुझे वेटिंग में डाल दिया गया, और मई सरकारी नौकरी से वंचित रह गयी, उस वक़्त हमारी साहू कास्ट को obc में नही लाया गया था, पर मेरे मेरे मार्क्स इतने धांसू थे, कि मुझे जरुरत नही रह गयी लग्गाभी कोई चीज हटा राज्य सेवा से वंचित तो रही,र मुझे प्रशाशन का ऐसा नशा ग की आजतक मई रधानमंत्री को आने पत्र लिख ,सॉरी, प्रधानमंत्री जी को , खैर ठहरा मेरा जूनून पागलपन, जो आजतक सर चढ़कर बोलता है
मई बाकी बातें कल लिखूंगी , कहानी, जो लेखन की यात्रा थी, रही वो, बहुत सीधी नही थी , इसमें
घर से स्कूल के बाद पसंदीदा जगह थी, वो, घर की बाड़ी थी, और खलिहान था, जन्हा मई पढ़ती थी, चना , तुअर के पढ़ना , और अमराई में से एक महसूस करना
वंही अपने साहित्य को मैंने अपना लिया , मुझे नही पता था, कि ज्ञान को करेंसी में कैसे बदलते है
मेरे इये लिए जिंदगी का मतलब था, पढोलिखो
फिर मुझे ८थ कक्षा ग्रामीण छात्रवृति हेतु चयन किया गया तो , बालाघाट जाना पड़ा, जन्हा मैंने bscतक की पढ़ाई की, कविता लिखना ८ वि से शुरू हुआ और बिना किसी के मार्गदर्शन के मुझे कहानी िखने का रोग लग गया , ये ऐसी आदत थी, की जिसे मैंने नही जाना, कि इससे कोई पैसा मिलेगा या नही, बीएस क्लास की पढ़ाई फिर अपने कविता कहानी की अलग दुनिया
जिसे कहते है, कि गयी काम से
या लिखने में गई तो, कोई काम की नही रही , बलाघात से मई llbकरने नागपुर गयी , वंही मेरा शादी के लिए चयन हो गया , चयन इसलिए कि ये भी एक जॉब था, उर मई अपनी लॉ की पढ़ाई, और नई गृहस्थी में तालमेल बिठालती रही, जो आजतक जारी है
भी थी, जो भी हस्र था , जो भी ष्ण था,, मैंने हमेशा सबसे अच्छा करना है, ये जीवन की ,इन्ही समझा
रात दिन म्हणत की , psc & cj की एग्जाम में लगी, बीटा चूका था, घर में देते थे, पीटीआई के ईटा ने जिन हराम कर रखा था, वह सब लिखने से लड़कियों का मन भयभीत होता है, इसलिए भुला कर की बातें लिखना चाहूंगी , कि जब मई सेवा के लिए लिखित व् साक्षात्कार में अव्वल आई, इर भी मुझे वेटिंग में डाल दिया गया, और मई सरकारी नौकरी से वंचित रह गयी, उस वक़्त हमारी साहू कास्ट को obc में नही लाया गया था, पर मेरे मेरे मार्क्स इतने धांसू थे, कि मुझे जरुरत नही रह गयी लग्गाभी कोई चीज हटा राज्य सेवा से वंचित तो रही,र मुझे प्रशाशन का ऐसा नशा ग की आजतक मई रधानमंत्री को आने पत्र लिख ,सॉरी, प्रधानमंत्री जी को , खैर ठहरा मेरा जूनून पागलपन, जो आजतक सर चढ़कर बोलता है
मई बाकी बातें कल लिखूंगी , कहानी, जो लेखन की यात्रा थी, रही वो, बहुत सीधी नही थी , इसमें
hnsa jaye akela
आजके इतने तेज युग में उस दौर की कल्पना बेमानी है, बहुत ही सुकून था , आराम से जीते थे , बुआ जी के घर की यादें कम तो, नही पद रही थी , पर रेडिओ सुनने और नावेल पढ़ने की नई आदत लगी थी घर चूँकि सड़क के किनारे एक अलग द्वीप जैसा था, जन्हा हम जैसे सर्वे सर्वा थे, सबके बीच नही रहे, बीएस अपना घर जाना, बहुत बड़ा, विस्तृत और खुला घर, बड़े आँगन, एक नही ४-५ आँगन, घर के आगे पीछे और सहन व् छापरी, जन्हा अनाज व् डालें सूखती, घर में सम्पन्नता थी, और गरीबी का कंही पता न था, क्यूंकि छोटे घरो में जाना नही हुआ था , इन्ही नही समझा की इससे बहार की दुनिया में बड़ी समस्या है जो , लोग आते थे, उनपर बहुत रहम आता था उनमे घर के कामवाली थे, व् कामवालियां थी
आजकल, तो जाड़ों के दिन है, हम खेत जाते थे, घूमने के लिए, उड़द , तुअर और चना की फसल आती थी तब, और मई जो देखती थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में है गाँव में फैली गरीबी का प्रतिक थी, वो औरत
वो, औरत बेचारी युवा ही थी, और ेचरी के साथ बच्चे होते थे, सब सिला बीनने आते थे, वे सब पढ़े लिखे नही होते, घरो में काम करती वो, औरत और फिर दिन भर शीला बिनती थी, जो खेतों में धन गिरता था , तो उसे काटने के बाद बोझ बंधने के बाद जो खेत में पड़ा रह जाता था , वो शीला कह लता था , उसे बिन्ते, बच्चो सहित वो गरीब औरत अति थी
और हमारे घर के साइड में जो नल था , नाला था, वो अमराई के पास था, वंही आम के पेड़ों के साथ, एक दो महुए के पेड़ थे, महुआ मार्च के पहले फागुन में झरता था , सब गरीबों का वो अमृत फल था, उसके क्या क्या नही बनते थे, क्या बताऊँ गरीबी बहुत थी, पर पकृति उसे निहाल कर देती थी अब नेचर नही है, तो खाने को कुछ नही है, हम बपो bpo के जाल में है
बुआ जी के घर का कुछ भी बिसरा नही, बाबूजी के घर का नवीन जीवन शुरू हुआ, जिसमे पढ़ाई के साथ ही, नावेल पढ़ने की लत लग गयी थी , ऐसी की छुट्टी नही थी, सबसे पहले गुलसन नंदा की गेलॉर्ड पढ़ी थी, और, वो भी अधूरी, क्यूनी बड़े भाई ने नावेल पढ़ते पकड़ कर छीन लिया था, खुद तो, नावेल लेकर पढ़ता, पर मई छिप कर नावेल पढ़ती थी, मुझे गुलसन नंदा , और प्रेम बाजपेई के नावेल पढ़ने मिले, गुलसन की चिंगारी, नमक उपन्यास, सबकुछ रोमांटिक और ऐसी दुनिया जो हक़ीक़त से अलहदा थी तभी तो नौकरी नह कर सकी, वास्तविकता का पता नही चला, और मुंबई के सपने देखती रही, जन्हा बेतहाशा नुकशान किया
आप अपनी स्टडी को पैसों में कैसे बदलते हो, ये ज्यादा प्रमुख है मेरा कोर ज्ञान मुझे धन नही दिल स्का तो,सबने कहना शुरू कर दिया, लिखकर क्या मिलता है पर मई लिखना नही छोड़ सकी ये प्रकृति का उपहार था
, और मुहे दूसरा उपहार मित्रता का मिला, ऐसे ऐसे मित्र व् परिचय मिले की मुझे गर्व है, अपनी मित्रता व् मित्रों की बहुत कदर करती हु, एकड़ एकाध ने मुझसे जो दगा किया, उसके लिए अपने सब मित्रो को मई कभी इग्नोर या ब्लैम नही कर सकती, लिखने के बाद अपनों की दोस्ती, ये मुझे गॉड गिफ्ट है, और मैं सब पर गर्व करती हूँ
कल, बताउंगी , कि , मैंने क्या पढ़ा, और कैसे एक समर्पित लेखिका बनती चली गयी, यूँ कहे, कि मई लेखिका से ज्यादा एक चिंतक बनी, और मेरे घर का बड़प्पन भरा उदार परिवेश मेरे चिंतन को धार देता रहा
आजकल, तो जाड़ों के दिन है, हम खेत जाते थे, घूमने के लिए, उड़द , तुअर और चना की फसल आती थी तब, और मई जो देखती थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में है गाँव में फैली गरीबी का प्रतिक थी, वो औरत
वो, औरत बेचारी युवा ही थी, और ेचरी के साथ बच्चे होते थे, सब सिला बीनने आते थे, वे सब पढ़े लिखे नही होते, घरो में काम करती वो, औरत और फिर दिन भर शीला बिनती थी, जो खेतों में धन गिरता था , तो उसे काटने के बाद बोझ बंधने के बाद जो खेत में पड़ा रह जाता था , वो शीला कह लता था , उसे बिन्ते, बच्चो सहित वो गरीब औरत अति थी
और हमारे घर के साइड में जो नल था , नाला था, वो अमराई के पास था, वंही आम के पेड़ों के साथ, एक दो महुए के पेड़ थे, महुआ मार्च के पहले फागुन में झरता था , सब गरीबों का वो अमृत फल था, उसके क्या क्या नही बनते थे, क्या बताऊँ गरीबी बहुत थी, पर पकृति उसे निहाल कर देती थी अब नेचर नही है, तो खाने को कुछ नही है, हम बपो bpo के जाल में है
बुआ जी के घर का कुछ भी बिसरा नही, बाबूजी के घर का नवीन जीवन शुरू हुआ, जिसमे पढ़ाई के साथ ही, नावेल पढ़ने की लत लग गयी थी , ऐसी की छुट्टी नही थी, सबसे पहले गुलसन नंदा की गेलॉर्ड पढ़ी थी, और, वो भी अधूरी, क्यूनी बड़े भाई ने नावेल पढ़ते पकड़ कर छीन लिया था, खुद तो, नावेल लेकर पढ़ता, पर मई छिप कर नावेल पढ़ती थी, मुझे गुलसन नंदा , और प्रेम बाजपेई के नावेल पढ़ने मिले, गुलसन की चिंगारी, नमक उपन्यास, सबकुछ रोमांटिक और ऐसी दुनिया जो हक़ीक़त से अलहदा थी तभी तो नौकरी नह कर सकी, वास्तविकता का पता नही चला, और मुंबई के सपने देखती रही, जन्हा बेतहाशा नुकशान किया
आप अपनी स्टडी को पैसों में कैसे बदलते हो, ये ज्यादा प्रमुख है मेरा कोर ज्ञान मुझे धन नही दिल स्का तो,सबने कहना शुरू कर दिया, लिखकर क्या मिलता है पर मई लिखना नही छोड़ सकी ये प्रकृति का उपहार था
, और मुहे दूसरा उपहार मित्रता का मिला, ऐसे ऐसे मित्र व् परिचय मिले की मुझे गर्व है, अपनी मित्रता व् मित्रों की बहुत कदर करती हु, एकड़ एकाध ने मुझसे जो दगा किया, उसके लिए अपने सब मित्रो को मई कभी इग्नोर या ब्लैम नही कर सकती, लिखने के बाद अपनों की दोस्ती, ये मुझे गॉड गिफ्ट है, और मैं सब पर गर्व करती हूँ
कल, बताउंगी , कि , मैंने क्या पढ़ा, और कैसे एक समर्पित लेखिका बनती चली गयी, यूँ कहे, कि मई लेखिका से ज्यादा एक चिंतक बनी, और मेरे घर का बड़प्पन भरा उदार परिवेश मेरे चिंतन को धार देता रहा
Wednesday 9 December 2015
इस जन्हा से आगे जन्हा और भी है
आसमान से आगे आसमां और भी है
हम नही है आखिरी मंजिल
हमसे भी आगे सिरमौर और भी है
तुमने सोचा था , तुमसे बिछुड़ के
हम बहुत रोयेंगे
साथ रहके , कारवां में
हम साथ चले भी और नही भी
वो था, जब मई शाम के पहले सामने के सहन में की गॉड में या उनके पास बैठ कर रह से गुजरते सभी को देखती
जिनमे एक बेर वाली बुआ थी , जो की चना-फूटना बेचने गुजरी जाती थी, कुछ बुआ लिए ले देती, या फिर यूँ करती, तो मई भी उनसे बोलती , बुआ जी मुझे तुिनया कहती
जब मई बाबूजी के घर आई तो, बुआ जी आती तो, बातें कहती थी, मई सबके हाल पूछती , उनमे बेर वाली बुआ भी होती , सबमे मेरी सहेली भी होती, मेरी सहेली ममता तो, जन्हा भी बुआ जी मिलती, मेरे बारे में पूछती, की जागेश्वरी कब आएगी, बुआ जी मेरी बुआ जी की आँखे भर आती थी, क्या जवाब देती कंठ अवरुद्ध हो जाता था
मेरे लिए तो, हट्टा की यादें बड़ी धरोहर थी पर समय गुजरा , मई अपनी पढ़ाई में लगी, स्कुल जाने और आने फिर गर को झाड़ू लगाने और बनाने में लग जाती बुआ जी के घर तो, एक गिलास पानी भी किसी को नही दी थी पर
माँ ने मुझे घर का सब काम सिखाई, बनाने का जिम्मे होता. बहुत व्यवस्था से उतने घर का खाना बनती थी
माँ ने अंता आटा गूंथना रोटी बनाना सिखाई, में चूल्हे में खाना बनता था, पहले आग जला कर कांसे कैसे के कसैले में तुअर की दाल गलने रखती, फिर सब्जी फ्राई करती, फिर चावल रखती, इंसके ,आटा गूँथ कर रखती, और अंत में रोटी सेंकती, रोटी भी फुल्के जैसी बनाना माँ सख्ती थी, माँ ने सभी तरीके से बनाना सिखाई थी
अब तो, उतनी तन्मयता से नही बनती, पर इतना तो, है, कि जो भी बनती हूँ, खाने लायक तो होता है
हमेशा से शुद्ध शाकाहार था , इसलिए विवाह बाद अपने घर में सारे बर्तन नए रखे, और फिर मेरे घर में हमेशा शाकाहार रहा
अब तो, लगता है, वेज वालों के खाने को ही कमतर किया जा रहा है, जो शाकाहारी है, वे खुद नही जानते की सब्जी कैसे उगाई जाती है
घर से स्कुल जाने में बहुत वक़्त लगता, क्यूंकि, वो दूसरे गांव ब्लॉक में था, मई पैदल जाती, और कई बार अकेले जाती थी
ये नही समझता था, की सुनसान रस्ते पर अकेले नही जाना चाहिए
आसमान से आगे आसमां और भी है
हम नही है आखिरी मंजिल
हमसे भी आगे सिरमौर और भी है
तुमने सोचा था , तुमसे बिछुड़ के
हम बहुत रोयेंगे
साथ रहके , कारवां में
हम साथ चले भी और नही भी
वो था, जब मई शाम के पहले सामने के सहन में की गॉड में या उनके पास बैठ कर रह से गुजरते सभी को देखती
जिनमे एक बेर वाली बुआ थी , जो की चना-फूटना बेचने गुजरी जाती थी, कुछ बुआ लिए ले देती, या फिर यूँ करती, तो मई भी उनसे बोलती , बुआ जी मुझे तुिनया कहती
जब मई बाबूजी के घर आई तो, बुआ जी आती तो, बातें कहती थी, मई सबके हाल पूछती , उनमे बेर वाली बुआ भी होती , सबमे मेरी सहेली भी होती, मेरी सहेली ममता तो, जन्हा भी बुआ जी मिलती, मेरे बारे में पूछती, की जागेश्वरी कब आएगी, बुआ जी मेरी बुआ जी की आँखे भर आती थी, क्या जवाब देती कंठ अवरुद्ध हो जाता था
मेरे लिए तो, हट्टा की यादें बड़ी धरोहर थी पर समय गुजरा , मई अपनी पढ़ाई में लगी, स्कुल जाने और आने फिर गर को झाड़ू लगाने और बनाने में लग जाती बुआ जी के घर तो, एक गिलास पानी भी किसी को नही दी थी पर
माँ ने मुझे घर का सब काम सिखाई, बनाने का जिम्मे होता. बहुत व्यवस्था से उतने घर का खाना बनती थी
माँ ने अंता आटा गूंथना रोटी बनाना सिखाई, में चूल्हे में खाना बनता था, पहले आग जला कर कांसे कैसे के कसैले में तुअर की दाल गलने रखती, फिर सब्जी फ्राई करती, फिर चावल रखती, इंसके ,आटा गूँथ कर रखती, और अंत में रोटी सेंकती, रोटी भी फुल्के जैसी बनाना माँ सख्ती थी, माँ ने सभी तरीके से बनाना सिखाई थी
अब तो, उतनी तन्मयता से नही बनती, पर इतना तो, है, कि जो भी बनती हूँ, खाने लायक तो होता है
हमेशा से शुद्ध शाकाहार था , इसलिए विवाह बाद अपने घर में सारे बर्तन नए रखे, और फिर मेरे घर में हमेशा शाकाहार रहा
अब तो, लगता है, वेज वालों के खाने को ही कमतर किया जा रहा है, जो शाकाहारी है, वे खुद नही जानते की सब्जी कैसे उगाई जाती है
घर से स्कुल जाने में बहुत वक़्त लगता, क्यूंकि, वो दूसरे गांव ब्लॉक में था, मई पैदल जाती, और कई बार अकेले जाती थी
ये नही समझता था, की सुनसान रस्ते पर अकेले नही जाना चाहिए
Tuesday 8 December 2015
अब तो हम झूठ-मुठ इज्जत की बात नही कर सकते बहुत ही ज्यादा पतन हुआ है
बुआ जी के घर से दूर होकर, मैंने खुद को पुस्तको में तलाशा
और, पढ़ाई-लिखे की दुनिया में प्रवेश कर गयी , अपने ही मन से, किसी ने प्रेरित नही किया घर के विस्तृत परिसरों ने मुझे लिखने-पढ़ने की आज़ादी दी, और ऐसा माहौल मुहैया करा दिया, की मई उस दुनिया में खो सी गयी बुआ जी अब भी याद आती , पर मैं अब रोटी नही थी, और किताबों के किरदारों पर विचार करती मुझे किताबों की दुनिया अपनी लगने लगी, और मुझे वंहा अपने नए सपने झलकने महसूस हुए
मैंने भारत के लिए सपनो पर जो भेजा लिखकर, उससे , एक रेडिओ आया था, लेकिन पैसे भी देने थे, तो, अपने सपनो के भारत के उपहार को एक पंचयत पंचायत बाबू ने ले लिए, वो पहला गिफ्ट था , जिसने बता दिया की मुझे कीमत अदा करनी है मुझे बुआ जी के बाद जो भी उपहार मिले, वो मेरे घर से मिले, मैंने बाहर से कभी कंही से एक भी गिफ्ट नही जाना शायद मेरी किस्मत नही थी पर , मुझे जो नेचर ने प्रकृति ने गिफ्ट किया वो, इतना ज्यादा था, की मैंने बेतहासा लिखा, और, अपने देश के प्रधानमंत्रियों को समय समय पर लिख भेजा पर, वंहा या कंही से कुछ नही मिला मेरी किस्मत ऐसी कि पसक pscकी परीक्षाओं में पास होकर मई प्रतीक्षा सूचि में चली गयी, फिर मई लिखने लगी इतना लिखा कि पूछो मत, पर वंहा भी अपना सब कुछ गंवा कर भी मुझे कुछ भी हासिल नही हो सका , कोई इस क्षेत्र में अपना नही था सब कुछ पैसे से हासिल था, या कोई पहचान या सिफारिश पर, मई सब जगह शिकस्त कहती रही मेरे इस हार ने, मेरी असफलता ने मेरे बेटे को बीमार कर दिया
मैंने फिल्म लाइन ज्वाइन करना चाहा, लिखने से लेकर डायरेक्शन तक, सब मृगतृष्णा थी आज भी लिखना
पढ़ना नही छूट रहा , सब लोग मुझे कहते है, जब कुछ नही मिलता तो, क्यों लिखती है यंहा तक कि मुझपर बेटे की अनदेखी करने का इल्जाम , क्या क्या नही सहा ये सब सहकर, किसी को लिखने की सलाह नही दे सकी ,
आज जब शेयर मार्किट में नुकसान की तब समझ रही हूँ कि ये मेरी लाइन नही है मई देश के लिए सपने देख , रही थी किन्तु,इसके लिए होना , ये सब के सहारे व् परिचय से होता है परिचय व् किसी भी लाइन में आपको पंगु बना
बुआ जी के घर से दूर होकर, मैंने खुद को पुस्तको में तलाशा
और, पढ़ाई-लिखे की दुनिया में प्रवेश कर गयी , अपने ही मन से, किसी ने प्रेरित नही किया घर के विस्तृत परिसरों ने मुझे लिखने-पढ़ने की आज़ादी दी, और ऐसा माहौल मुहैया करा दिया, की मई उस दुनिया में खो सी गयी बुआ जी अब भी याद आती , पर मैं अब रोटी नही थी, और किताबों के किरदारों पर विचार करती मुझे किताबों की दुनिया अपनी लगने लगी, और मुझे वंहा अपने नए सपने झलकने महसूस हुए
मैंने भारत के लिए सपनो पर जो भेजा लिखकर, उससे , एक रेडिओ आया था, लेकिन पैसे भी देने थे, तो, अपने सपनो के भारत के उपहार को एक पंचयत पंचायत बाबू ने ले लिए, वो पहला गिफ्ट था , जिसने बता दिया की मुझे कीमत अदा करनी है मुझे बुआ जी के बाद जो भी उपहार मिले, वो मेरे घर से मिले, मैंने बाहर से कभी कंही से एक भी गिफ्ट नही जाना शायद मेरी किस्मत नही थी पर , मुझे जो नेचर ने प्रकृति ने गिफ्ट किया वो, इतना ज्यादा था, की मैंने बेतहासा लिखा, और, अपने देश के प्रधानमंत्रियों को समय समय पर लिख भेजा पर, वंहा या कंही से कुछ नही मिला मेरी किस्मत ऐसी कि पसक pscकी परीक्षाओं में पास होकर मई प्रतीक्षा सूचि में चली गयी, फिर मई लिखने लगी इतना लिखा कि पूछो मत, पर वंहा भी अपना सब कुछ गंवा कर भी मुझे कुछ भी हासिल नही हो सका , कोई इस क्षेत्र में अपना नही था सब कुछ पैसे से हासिल था, या कोई पहचान या सिफारिश पर, मई सब जगह शिकस्त कहती रही मेरे इस हार ने, मेरी असफलता ने मेरे बेटे को बीमार कर दिया
मैंने फिल्म लाइन ज्वाइन करना चाहा, लिखने से लेकर डायरेक्शन तक, सब मृगतृष्णा थी आज भी लिखना
पढ़ना नही छूट रहा , सब लोग मुझे कहते है, जब कुछ नही मिलता तो, क्यों लिखती है यंहा तक कि मुझपर बेटे की अनदेखी करने का इल्जाम , क्या क्या नही सहा ये सब सहकर, किसी को लिखने की सलाह नही दे सकी ,
आज जब शेयर मार्किट में नुकसान की तब समझ रही हूँ कि ये मेरी लाइन नही है मई देश के लिए सपने देख , रही थी किन्तु,इसके लिए होना , ये सब के सहारे व् परिचय से होता है परिचय व् किसी भी लाइन में आपको पंगु बना
Monday 7 December 2015
bnaras ki byar: बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक झटका था बी वे आ...
bnaras ki byar: बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक झटका था
बी वे आ...: बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक झटका था बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती मई थी, नई जगह मेरे ...
बी वे आ...: बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक झटका था बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती मई थी, नई जगह मेरे ...
बुआ जी से दूर होना जिंदगी का एक झटका था
बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती
मई थी, नई जगह मेरे माता पिता का घर था, जन्हा मेरे ६ बहन भाई थे, पर खिचाई करते
मुझे यंहा भी बहुत अच्छा माहौल मिला, मुझे ढेर साड़ी किताबें पढ़ने मिलती थी, पहले तो, मैंने धार्मिक किताबें पढ़नी आरम्भ की,क्यूंकि, उस बेस बरस तो, मेरा स्कुल जाना नही हो स्का , पितृ -पक्ष में बुआ जी के घर से गयी थी, बहुत डर्टी थी , डरती थी, बाबूजी ने बहुत जगह मुझे दिखाए , शाम के पहले बाबूजी या अपने जीजू के पास चली जाती उन्हें रोकती, उसी साल मेरी दी की शादी हुई थी, मई उनके घर जाती , या अपने बाजु में किराये वालों के घर बैठती धीरे धीरे मुझे उस भय से मुक्ति मिली, तो, चूँकि मेरी क्लास नही होती थी, तो नौकर के साथ बाजार जाती, एक नौकर मुझे बाजार ले जाता था , और मई तोता मैन के किस्से खरीदती थी
इस तरह से समय गुर रहा था मेरी पढ़ने बढ़ती जाती थी मुझे दीदी के घर भी बहुत से पत्रिकाएं मिलती, धर्मयुग व् माधुरी वंही से मिली, माधुरी व् चित्रलेखा ये नियमित पढ़ती, तभी से फिल्मों के प्रति रुझान बढ़ा, की कैसे बनती है, कैसे लिखा जाता है बहुत गंभीर लेखों को गंभीरता से पढ़ती थी अख़बार तो, पूरा चाट डालती थी, यंहा तक की हमेशा सम्पादकीय तक गंभीरता से पढ़ती और समझती थी फिर अगले साल जब मेरा नए स्कुल में दाखिला हुआ तो, मई अपनी पढ़ाई में लग गयी थी और , बीबीसी लंदन सुनती, रेडिओ में भी सभी समझने की कोशिश होती खुद से ही सब पढ़कर समझने की ललक थी खुद को खुद ही राह दिखती थी उसी वक़्त से टाईमटेबल बना कर पढ़ती व् घर के काम भी करती थी ,माँ ने सब काम करना सिखाई थी, सब कुछ छठवी से करने लगी थी, घर में झाड़ू लगाने का बड़े ही मनोयोग से करती, जबकि नौकर व् कामवाली होती थी
कहा गया, वो उत्साह, वो हुलास कर काम करने का भाव, अब तो काम करती नही, जैसे टालती हूँ
शेष फिर
बी वे आती तो, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नही रहता जब वे लौटती तो , मई उदाश रहती
मई थी, नई जगह मेरे माता पिता का घर था, जन्हा मेरे ६ बहन भाई थे, पर खिचाई करते
मुझे यंहा भी बहुत अच्छा माहौल मिला, मुझे ढेर साड़ी किताबें पढ़ने मिलती थी, पहले तो, मैंने धार्मिक किताबें पढ़नी आरम्भ की,क्यूंकि, उस बेस बरस तो, मेरा स्कुल जाना नही हो स्का , पितृ -पक्ष में बुआ जी के घर से गयी थी, बहुत डर्टी थी , डरती थी, बाबूजी ने बहुत जगह मुझे दिखाए , शाम के पहले बाबूजी या अपने जीजू के पास चली जाती उन्हें रोकती, उसी साल मेरी दी की शादी हुई थी, मई उनके घर जाती , या अपने बाजु में किराये वालों के घर बैठती धीरे धीरे मुझे उस भय से मुक्ति मिली, तो, चूँकि मेरी क्लास नही होती थी, तो नौकर के साथ बाजार जाती, एक नौकर मुझे बाजार ले जाता था , और मई तोता मैन के किस्से खरीदती थी
इस तरह से समय गुर रहा था मेरी पढ़ने बढ़ती जाती थी मुझे दीदी के घर भी बहुत से पत्रिकाएं मिलती, धर्मयुग व् माधुरी वंही से मिली, माधुरी व् चित्रलेखा ये नियमित पढ़ती, तभी से फिल्मों के प्रति रुझान बढ़ा, की कैसे बनती है, कैसे लिखा जाता है बहुत गंभीर लेखों को गंभीरता से पढ़ती थी अख़बार तो, पूरा चाट डालती थी, यंहा तक की हमेशा सम्पादकीय तक गंभीरता से पढ़ती और समझती थी फिर अगले साल जब मेरा नए स्कुल में दाखिला हुआ तो, मई अपनी पढ़ाई में लग गयी थी और , बीबीसी लंदन सुनती, रेडिओ में भी सभी समझने की कोशिश होती खुद से ही सब पढ़कर समझने की ललक थी खुद को खुद ही राह दिखती थी उसी वक़्त से टाईमटेबल बना कर पढ़ती व् घर के काम भी करती थी ,माँ ने सब काम करना सिखाई थी, सब कुछ छठवी से करने लगी थी, घर में झाड़ू लगाने का बड़े ही मनोयोग से करती, जबकि नौकर व् कामवाली होती थी
कहा गया, वो उत्साह, वो हुलास कर काम करने का भाव, अब तो काम करती नही, जैसे टालती हूँ
शेष फिर
Sunday 6 December 2015
hnsa jaye akela
बुआ जी के घर का हैंगओवर या नशा आजतक उतरा नही है, वो, आज भी मेरे मन में वैसे ही है
बुआ जी कितनी गंभीर और मेरे प्रति कितनी चिंतातुर होती थी पर , उनके घर मुझे कोई दुःख तो था नही, ये समझो , की दुःख या चिंता नही जानी थी
वंहा मई डरना लगी थी, जब उनके घर बुआ जी की मृत्यु हो गयी तो, मुझे डॉ लगने लगा था, अक्सर नज़र आती , और मई डॉ जाती थी, ऐसे में एक रात
और मुझे बुआ जी का घर छोड़ना पड़ा था , वो बहुत दौर था
एक ऐसा वक़्त जो, हमने साथ गुजर, अचानक जब चली आई तो, बुआ जी के दुःख का ठिकाना नही रहा
अपने बेटे व् पीटीआई को खो चुकी थी, अपनी नन्द की मृत्यु भी उन्होंने अकेले , इतनी सारी मौतों के बाद उस घर में मैं अपने बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से जैसे जिवंत रखती थी
बा जी मेरे संग सब भूल जाती थी , यूँ मेरे डरकर चले आने से वे कितनी टूट गयी थी, पहाड़ जैसा दुःख उनपर आ पड़ा था, कहा बेटे के बिछड़ने के गम से वो, उबर रही थी
और , अब फिर से अकेली, टूटी सी ,उदास अकेली,तन्हा रह गयी थी
उन्हें धीरोजा व् दूसरी पड़ोसनें मेरी थी मेरी बातें करना ही उन्हें अच्छा लगता था फिर बातें गोष्ठियों की तरह बा घर होती, उन सभी औरतों प्रिय विषय गयी. अपने खेती -बाड़ी के काम से जब उन्हें फुर्सत मिलती तो , वे सब मेरी बातें करती। ...छोटी बाई ये थी... थी
मेरे बारे में , मेरी पढाई , मेरे शांत नेचर और शायद कि वे सब मुझे तहेदिल से चाहती थी
बुआ जी फिर मेरी यादों में ही खोई रहने हमेशा घर- जिधर भी जाती , मुझे थी जब बुआ जी बाबूजी के गांव मुझसे तो, जाने कैसे बैलगाड़ी आने खबर जाती, आर और, मई दौड़ती हुई, बैलगाड़ी तक पहुँचती, इतनी खशी बुआ जी व् मुझे होती, जो बयान बाहर होती, आँखें जाती थी, बुआ जी तो,जैसे निहाल हो जाती, उनकी आँखों आंसू भर आते , और मई तो, जैसे जाती, बीएस बुआ जी आ गयी , एहि मुझे याद रहता बुआजी के लिए खत चारपाई बिछाती , जैसे थकी क्लांत सी आती, फिर थक सी जाती,
मुझे देख उन्हें मिलती होगी , ये आज मई महसूस
जब तक जी रहती , मई सबकी बातें पूछती , बुआ जी भी बताती, कैसे सब याद करते
ममता मेरी
बुआ जी कितनी गंभीर और मेरे प्रति कितनी चिंतातुर होती थी पर , उनके घर मुझे कोई दुःख तो था नही, ये समझो , की दुःख या चिंता नही जानी थी
वंहा मई डरना लगी थी, जब उनके घर बुआ जी की मृत्यु हो गयी तो, मुझे डॉ लगने लगा था, अक्सर नज़र आती , और मई डॉ जाती थी, ऐसे में एक रात
और मुझे बुआ जी का घर छोड़ना पड़ा था , वो बहुत दौर था
एक ऐसा वक़्त जो, हमने साथ गुजर, अचानक जब चली आई तो, बुआ जी के दुःख का ठिकाना नही रहा
अपने बेटे व् पीटीआई को खो चुकी थी, अपनी नन्द की मृत्यु भी उन्होंने अकेले , इतनी सारी मौतों के बाद उस घर में मैं अपने बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से जैसे जिवंत रखती थी
बा जी मेरे संग सब भूल जाती थी , यूँ मेरे डरकर चले आने से वे कितनी टूट गयी थी, पहाड़ जैसा दुःख उनपर आ पड़ा था, कहा बेटे के बिछड़ने के गम से वो, उबर रही थी
और , अब फिर से अकेली, टूटी सी ,उदास अकेली,तन्हा रह गयी थी
उन्हें धीरोजा व् दूसरी पड़ोसनें मेरी थी मेरी बातें करना ही उन्हें अच्छा लगता था फिर बातें गोष्ठियों की तरह बा घर होती, उन सभी औरतों प्रिय विषय गयी. अपने खेती -बाड़ी के काम से जब उन्हें फुर्सत मिलती तो , वे सब मेरी बातें करती। ...छोटी बाई ये थी... थी
मेरे बारे में , मेरी पढाई , मेरे शांत नेचर और शायद कि वे सब मुझे तहेदिल से चाहती थी
बुआ जी फिर मेरी यादों में ही खोई रहने हमेशा घर- जिधर भी जाती , मुझे थी जब बुआ जी बाबूजी के गांव मुझसे तो, जाने कैसे बैलगाड़ी आने खबर जाती, आर और, मई दौड़ती हुई, बैलगाड़ी तक पहुँचती, इतनी खशी बुआ जी व् मुझे होती, जो बयान बाहर होती, आँखें जाती थी, बुआ जी तो,जैसे निहाल हो जाती, उनकी आँखों आंसू भर आते , और मई तो, जैसे जाती, बीएस बुआ जी आ गयी , एहि मुझे याद रहता बुआजी के लिए खत चारपाई बिछाती , जैसे थकी क्लांत सी आती, फिर थक सी जाती,
मुझे देख उन्हें मिलती होगी , ये आज मई महसूस
जब तक जी रहती , मई सबकी बातें पूछती , बुआ जी भी बताती, कैसे सब याद करते
ममता मेरी
Thursday 3 December 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: जी बुआजी के घर आती ही, धीरोजा मेहतरानी , वह जब भी हमारे यंहा आती, घर का आँगन गुलजार हो जाता , मेहतरानी थी, तो आँगन तक ही आती थी, रोज चाय...
Wednesday 2 December 2015
hnsa jaye akela
जी बुआजी के घर आती ही, धीरोजा मेहतरानी , वह जब भी हमारे यंहा आती, घर का आँगन गुलजार हो जाता , मेहतरानी थी, तो आँगन तक ही आती थी, रोज चाय -नास्ता उसके लिए होता, और अक्सर दोपहर को आती, वो मुझे बेहद चाहती थी, मेरे लिए उसके घर के बगीचे से फल लती, सभी मौसमी फल मई उसीके यंहा के कहती थी , आर वो, मुझे सब जगह घूमने ले जाती , यद्यपि उसे नही छूना होता, पर घर से बाहर मई स्की अंगुली थामे ही चलती, बाजार-हैट, गुजरी जाती। बुआ जी नही जाती थी.
मई रामलीला देखने, गणेश जी व् दुर्गा जी इ दशन भी तो, धीरोजा के साथ जाकर करती, बारिश में भीगते , वो मासूम खिलखिलाते पल जाने कान्हा गए , कहा चले गए, वो प्यारे प्यारे दिन, बातों को यङ्करके ही , ये गीत िखे होंगे , प्यारे दिन थे वे
मई जब कुछ बड़ी हुई, स्कुल जाने लगी तो, अपनी सहेली ममता के साथ, दुर्गा जी के मेले में जाती, वंहा से ढेर से खिलौने लेकर हम दोनों एक बड़े से डलिया में रक्ते और, उसे रस्सी से खींचकर , एक दूसरे के घर ले जाते , हम दोनों बहुत मिलकर रेट, अभी नही झगड़ते थे , मई एक बार जो घटना घाटी उसपर भी लिख चुकी हूँ.
बुआ जी के घर वाकई बेफिक्र थे, वंहा मेरी किसी से स्पर्धा नही थी, शायद इन्ही कारन से, मेरी किसी से कोई आज तक स्पर्धा नही, रही,, शायद मेरी स्पर्धा अपने से ही रही,
बुआ जी के घर का अहसस मुझे जिन्दा रखता है
गौओं के साथ , पक्षियों के साथ, अपनों के संग उस प्राकृतिक जगह में मई रही, ये समझती रही होंगी , की हमेशा वंही रहूंगी
बुआ जी की सौत भी मृत्यु होने के बाद वंहा क वातावरण में बोझिलता आ गयी थी, किन्तु मई अपने खेल व् पढ़ाई में लगी रहती थी कितने प्यारे ,जब ४ मःतक बारिश होती थी , और हम घरों में रम्यं सुनते , रामायण सुनते थे, जो की शुकनंदन जी गाते थे।
एक दिन वो भी नही रहे , सब जाने कहा अनजान देश जा रहे थे
मुनीम जी पेहले ही जा चुके थे
घर में रहस्यपूर्ण शांति थी , और बुआ जी भाग्य के खेल पर मौन थी, कई बार मुझे वंहा घर में कुछ महसूस होता था , फिर मई डॉ गयी थी, वो दिन बी मई तिजोरी से चाहे जितने पैसे उठकर सिर्फ एक खिलौना लाती थी
वो, देश परया हो रहा था , वंहा गर्मियों मई ढेर सारे आम कहती मुझे घंघोड़े हो जाते थे, तब इतनी छोटी थी, की बुआजी कंधों पर उढाये, मुझे रत भर घर में घूमती थी, क्यूंकि मई रोटी थी
मई स्कुल से क्यारियां लेकर आई थी , और पेड़ लगाये थे, वंही तुलसी के चबूतरे के इर्द-गिर्द ,जो मेरे जाने के बाद बुआ जी को मेरी याद दिलाते रहे थे
बुआ जी तब अकेि रह गयी थी, मई बुआ जी के घर से निकल कर आई , पर आज तक जैसे वंही के माहौल में जी रही हूँ, अपने सिमित साधन में भी खुद को कमतर नही मानती
ये मेरी प्रकृति है, और बेटे की कमिक्स कॉमिक्स जब उठकर दे दी, तब मई नही जान सकी कि मई कितना गलत काम कर रही हूँ
पितृ पक्ष में मई बुआ जी के उनके जेठ के यंहा जाने पर अकेली थी, बाजु इके किराये वाले दम्पति भी थे , पर मई डॉ गयी थी मई ११ वर्ष की लड़की रत ३ बजे चीखकर उठी थी, बीएस उसी रात ने बुआ जी के घर से मुहे विलग कर दिया था , पर बुआ जी की आत्मा का नेह आज भी मेरे साथ है
बुआ जी आपके लिए मई कुछ नही कर सकी, बीएस आज भी याद आती है, तो, मई आपके लिए प्रभु का स्मरण करती हूँ बुआजी आपको नही भूल सकती , न डिरोजा को भूलिंगी buaji तो, दुखों को पीती थी, पर धीरोजा मेरी याद अनेर आनेपर, जोरो से दहाड़ मारकर रोटी , तो सब उसके साथ रोने लगते थे
धीरोजा जब सड़क झड़ने झाड़ने जाती , तो, याद आते ही, जोरों से रोने लगती , सब दौड़कर आते, क्या हो गया
धीरोजा बाई,......
तो रोकर अहति..... मेरी छोटी बाई जी, याद आ गयी
सब ऐसे असहाय होकर देखते थे
फिर धीरोजा मुझसे मिलने बाबूजी के गांव भी आई थी, और, मुझे देखकर उसकी तो, जैसे आँखें जुड़ा गयी थी, मई उसकी ख़ुशी को आजतक अपने भीतर महसूस करती हूँ
वो, धीरोजा बाई, मई भी तुम्हे बहुत याद करती हूँ फिर उतने प्यारे और अनुकूल लोग मुझे कभी नही मिले
वो, स्नेह-दुलार मुझे फिर कोई नही दे सका , जो बुआ जी और धीरोजा ने मुझपर लुटाया था
मई रामलीला देखने, गणेश जी व् दुर्गा जी इ दशन भी तो, धीरोजा के साथ जाकर करती, बारिश में भीगते , वो मासूम खिलखिलाते पल जाने कान्हा गए , कहा चले गए, वो प्यारे प्यारे दिन, बातों को यङ्करके ही , ये गीत िखे होंगे , प्यारे दिन थे वे
मई जब कुछ बड़ी हुई, स्कुल जाने लगी तो, अपनी सहेली ममता के साथ, दुर्गा जी के मेले में जाती, वंहा से ढेर से खिलौने लेकर हम दोनों एक बड़े से डलिया में रक्ते और, उसे रस्सी से खींचकर , एक दूसरे के घर ले जाते , हम दोनों बहुत मिलकर रेट, अभी नही झगड़ते थे , मई एक बार जो घटना घाटी उसपर भी लिख चुकी हूँ.
बुआ जी के घर वाकई बेफिक्र थे, वंहा मेरी किसी से स्पर्धा नही थी, शायद इन्ही कारन से, मेरी किसी से कोई आज तक स्पर्धा नही, रही,, शायद मेरी स्पर्धा अपने से ही रही,
बुआ जी के घर का अहसस मुझे जिन्दा रखता है
गौओं के साथ , पक्षियों के साथ, अपनों के संग उस प्राकृतिक जगह में मई रही, ये समझती रही होंगी , की हमेशा वंही रहूंगी
बुआ जी की सौत भी मृत्यु होने के बाद वंहा क वातावरण में बोझिलता आ गयी थी, किन्तु मई अपने खेल व् पढ़ाई में लगी रहती थी कितने प्यारे ,जब ४ मःतक बारिश होती थी , और हम घरों में रम्यं सुनते , रामायण सुनते थे, जो की शुकनंदन जी गाते थे।
एक दिन वो भी नही रहे , सब जाने कहा अनजान देश जा रहे थे
मुनीम जी पेहले ही जा चुके थे
घर में रहस्यपूर्ण शांति थी , और बुआ जी भाग्य के खेल पर मौन थी, कई बार मुझे वंहा घर में कुछ महसूस होता था , फिर मई डॉ गयी थी, वो दिन बी मई तिजोरी से चाहे जितने पैसे उठकर सिर्फ एक खिलौना लाती थी
वो, देश परया हो रहा था , वंहा गर्मियों मई ढेर सारे आम कहती मुझे घंघोड़े हो जाते थे, तब इतनी छोटी थी, की बुआजी कंधों पर उढाये, मुझे रत भर घर में घूमती थी, क्यूंकि मई रोटी थी
मई स्कुल से क्यारियां लेकर आई थी , और पेड़ लगाये थे, वंही तुलसी के चबूतरे के इर्द-गिर्द ,जो मेरे जाने के बाद बुआ जी को मेरी याद दिलाते रहे थे
बुआ जी तब अकेि रह गयी थी, मई बुआ जी के घर से निकल कर आई , पर आज तक जैसे वंही के माहौल में जी रही हूँ, अपने सिमित साधन में भी खुद को कमतर नही मानती
ये मेरी प्रकृति है, और बेटे की कमिक्स कॉमिक्स जब उठकर दे दी, तब मई नही जान सकी कि मई कितना गलत काम कर रही हूँ
पितृ पक्ष में मई बुआ जी के उनके जेठ के यंहा जाने पर अकेली थी, बाजु इके किराये वाले दम्पति भी थे , पर मई डॉ गयी थी मई ११ वर्ष की लड़की रत ३ बजे चीखकर उठी थी, बीएस उसी रात ने बुआ जी के घर से मुहे विलग कर दिया था , पर बुआ जी की आत्मा का नेह आज भी मेरे साथ है
बुआ जी आपके लिए मई कुछ नही कर सकी, बीएस आज भी याद आती है, तो, मई आपके लिए प्रभु का स्मरण करती हूँ बुआजी आपको नही भूल सकती , न डिरोजा को भूलिंगी buaji तो, दुखों को पीती थी, पर धीरोजा मेरी याद अनेर आनेपर, जोरो से दहाड़ मारकर रोटी , तो सब उसके साथ रोने लगते थे
धीरोजा जब सड़क झड़ने झाड़ने जाती , तो, याद आते ही, जोरों से रोने लगती , सब दौड़कर आते, क्या हो गया
धीरोजा बाई,......
तो रोकर अहति..... मेरी छोटी बाई जी, याद आ गयी
सब ऐसे असहाय होकर देखते थे
फिर धीरोजा मुझसे मिलने बाबूजी के गांव भी आई थी, और, मुझे देखकर उसकी तो, जैसे आँखें जुड़ा गयी थी, मई उसकी ख़ुशी को आजतक अपने भीतर महसूस करती हूँ
वो, धीरोजा बाई, मई भी तुम्हे बहुत याद करती हूँ फिर उतने प्यारे और अनुकूल लोग मुझे कभी नही मिले
वो, स्नेह-दुलार मुझे फिर कोई नही दे सका , जो बुआ जी और धीरोजा ने मुझपर लुटाया था
Sunday 29 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: विगत को आज में नही ल सकते , दोनों अलग है बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ ...
hnsa jaye akela
विगत को आज में नही ल सकते , दोनों अलग है
बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ थे, पीछे एक और बाड़ी थी, मुनगे के पेड़ के पास था, सेमल का पेड़, कबसे उसके कापसी उड़ते लाल फूलों को मैंने घर-बाहर उड़ते देखा था, बहुत अच्छा लगता था, इधर-उधर से खेलकर लौटकर बुआजी की गोदी में घुस जाती थी, जब बुआ जी सामने छपरी में अपनी जगह पर बैठकर सबसे बातें करती होती, तो, मई उनके आसपास खेल रही होती थी, हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो खेती करने वालों का था, बाद में आजकल, उन्होंने दुकाने डाल ली है, खेती अब फूल टाइम जॉब नही रहा , हमे लिखते समय हमेशा सभी के जीविका का स्त्रोत जरूर लिखना होगा। इन्ही सच है
हमारे घर आनेवालों को क्या मिलता रहा होगा, आज कामके लिए कोई नही आता , मजदूरी हम नही दे सकते , घर बनाने में लाखों रूपये लग गए, क्यूंकि, मजदूरी ही लाखो लगी, ये तब नही था , इश्लीए, आज किसान आत्महत्या कर रहे है, वे १५० रूपये रोजी के मजदूर कहा से लए , जबकि धान का मूल्य वंही है
तब, कृषि जीवन-पद्धति थी, आज बिज़नेस क्लास है, और है, मार्केटिंग, आप आज क्या बेचोगे , लोग रूप और रिश्ते बेच रहे है,
कोई भी मैनेजर है, सिर्फ बेचना है, एक देश जो उत्पादक था, अब बाजार है, खैर
मेरा बचपन बहुत प्यारा न्यारा था, क्यूंकि , मुझे कोई काम नही करना होता, राजकुमारी जैसी मई सभी के स्नेह की व् आदर की पात्र थी , हमारे घर आनेवाले, मुझे बहुत लाड़ से बतियाते थे।
पर मई न तो, कभी सिरचढ़ी हो सकी न, ही, अहंकारी , मुझे घी-रोटी खाने में ही संतोष मिल जाता था, अलबत्ता रोज २-३ बजे अपरान्ह को पासके चौक से मई सेव-चिवड़ा लेकर कहती थी, और जब जेब में न रखकर , हाथों में हो रखकर लाती तो, कौवे मुझसे सेव-चिवड़ा चीन लेते, तब वंही बैठकर रह में रोटी-मचलती थी।
मुझे याद है, मेरा प्रिय सेव-चिवड़ा कौवे कहते तो, मई बहुत खीजती थी, ये लेकिन रोज ही होता था , क्यूंकि, उसे घरतक लेकर खाने का धैर्य मुझमे कहा था, मई रस्ते में कहती, और कौवे रोज मुझसे छीनते थे
ये सब लिखते समय उस वक़्त की ज्यादा कोई भावना अब नही आ रही , है, क्यूंकि दुनिया ने मुझसे बहुत चीन-छपट्टी की है
बुआ जी के घर शांझ बहुत अच्छी लगती थी, जब, हमारी कबरई गाय चरकर आती, वो हुलसती हुई आती, और बुआजी, उसके लिए जो ठाँव रखती थी, उसे देती थी, और उसपर हाथ फेरती थी,ये थी गौओं की सेवा , तब गौएँ जब बूढी होती, तब भी हमारे घरके कोठे में रहती थी, मरते डैम तक उन्हें चारा -पानी देते थे, इसके लिए चरवाहा था, जिसे हम भास्कि भासकी की कहते थे।
बहुत प्यारे दिन थे, सुबह अलसुबह भोर में कौवे बोलते थे, फिर चिड़ियों की चहचहाट होती थी , बसंता सामने सर पर टोकरा लिए आती थी, जो अपने कोठे से गोबर फेकती थी, उसकी कितनी साड़ी जमीं थी, घर उधर और सामने बाड़ी में होती थी, बाड़ी, जन्हा अब बहुत सारी दुकानें है , सोचिये, आज क्या हम गोबर फेंक सकती है, जबकि हमारे पास कुछ नही, उन्सब्के जितना
एक बार मुझे पोस्टऑफिस में एक आदमी मिला, और मुझसे बोला, आप हट्टा में दारुवाली बाई के यंहा रहती थी, न मैंने आश्चर्य से हाँ कहा , वो, बताने लगा, मेरी बुआ जी के बारे में कि वे कितने बड़े लोग थे, उसीने मुझे बताया की, हमारी बुआ जी के घरसे जो मंदिर बनाया गया था , उसे ५ एकड़ जमीन दान में दी गयी थी ,
ओह, मेरा मुख खुला का खुला रह गया , बुआजी ने ये बात हमसे कभी नही कही थी, कि उनके परिवार से कितना दान दिया गया था , ये बात मुझे उनकी मृत्यु के बरसों बाद पता चली थी
सोचती हूँ, कितने बड़े थे, वे लोग, जिन्होंने १० कुंए बनवाने से लेकर सभी बड़े दान-पुण्य की बात कभी अपने मुख से नही कही, आजतो, लोग मंदिर में पत्थर लगाकर, अपना नाम लिखना नही भूलते ये भी कि मेरे घर में कह दिया गया था,कि बुआ जी की लाड़ली होकर भी, मुझे उनसे कुछ नही लेना है, और मैंने बुआ जी से एक एकड़ जमीन तक नही ली, लेकिन जिन्हे बुआ जी ने अपनी अथाह सम्पत्ति दी, उन्होंने बुआजी को तड़पा-तड़पा के मार डाले थे
बुआ जी के घर एक मूंगे का पेड़ पीछे की बड़ी में था, और वंही पास के हिस्से में घुरो था, कुछ और पेड़ थे, पीछे एक और बाड़ी थी, मुनगे के पेड़ के पास था, सेमल का पेड़, कबसे उसके कापसी उड़ते लाल फूलों को मैंने घर-बाहर उड़ते देखा था, बहुत अच्छा लगता था, इधर-उधर से खेलकर लौटकर बुआजी की गोदी में घुस जाती थी, जब बुआ जी सामने छपरी में अपनी जगह पर बैठकर सबसे बातें करती होती, तो, मई उनके आसपास खेल रही होती थी, हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो खेती करने वालों का था, बाद में आजकल, उन्होंने दुकाने डाल ली है, खेती अब फूल टाइम जॉब नही रहा , हमे लिखते समय हमेशा सभी के जीविका का स्त्रोत जरूर लिखना होगा। इन्ही सच है
हमारे घर आनेवालों को क्या मिलता रहा होगा, आज कामके लिए कोई नही आता , मजदूरी हम नही दे सकते , घर बनाने में लाखों रूपये लग गए, क्यूंकि, मजदूरी ही लाखो लगी, ये तब नही था , इश्लीए, आज किसान आत्महत्या कर रहे है, वे १५० रूपये रोजी के मजदूर कहा से लए , जबकि धान का मूल्य वंही है
तब, कृषि जीवन-पद्धति थी, आज बिज़नेस क्लास है, और है, मार्केटिंग, आप आज क्या बेचोगे , लोग रूप और रिश्ते बेच रहे है,
कोई भी मैनेजर है, सिर्फ बेचना है, एक देश जो उत्पादक था, अब बाजार है, खैर
मेरा बचपन बहुत प्यारा न्यारा था, क्यूंकि , मुझे कोई काम नही करना होता, राजकुमारी जैसी मई सभी के स्नेह की व् आदर की पात्र थी , हमारे घर आनेवाले, मुझे बहुत लाड़ से बतियाते थे।
पर मई न तो, कभी सिरचढ़ी हो सकी न, ही, अहंकारी , मुझे घी-रोटी खाने में ही संतोष मिल जाता था, अलबत्ता रोज २-३ बजे अपरान्ह को पासके चौक से मई सेव-चिवड़ा लेकर कहती थी, और जब जेब में न रखकर , हाथों में हो रखकर लाती तो, कौवे मुझसे सेव-चिवड़ा चीन लेते, तब वंही बैठकर रह में रोटी-मचलती थी।
मुझे याद है, मेरा प्रिय सेव-चिवड़ा कौवे कहते तो, मई बहुत खीजती थी, ये लेकिन रोज ही होता था , क्यूंकि, उसे घरतक लेकर खाने का धैर्य मुझमे कहा था, मई रस्ते में कहती, और कौवे रोज मुझसे छीनते थे
ये सब लिखते समय उस वक़्त की ज्यादा कोई भावना अब नही आ रही , है, क्यूंकि दुनिया ने मुझसे बहुत चीन-छपट्टी की है
बुआ जी के घर शांझ बहुत अच्छी लगती थी, जब, हमारी कबरई गाय चरकर आती, वो हुलसती हुई आती, और बुआजी, उसके लिए जो ठाँव रखती थी, उसे देती थी, और उसपर हाथ फेरती थी,ये थी गौओं की सेवा , तब गौएँ जब बूढी होती, तब भी हमारे घरके कोठे में रहती थी, मरते डैम तक उन्हें चारा -पानी देते थे, इसके लिए चरवाहा था, जिसे हम भास्कि भासकी की कहते थे।
बहुत प्यारे दिन थे, सुबह अलसुबह भोर में कौवे बोलते थे, फिर चिड़ियों की चहचहाट होती थी , बसंता सामने सर पर टोकरा लिए आती थी, जो अपने कोठे से गोबर फेकती थी, उसकी कितनी साड़ी जमीं थी, घर उधर और सामने बाड़ी में होती थी, बाड़ी, जन्हा अब बहुत सारी दुकानें है , सोचिये, आज क्या हम गोबर फेंक सकती है, जबकि हमारे पास कुछ नही, उन्सब्के जितना
एक बार मुझे पोस्टऑफिस में एक आदमी मिला, और मुझसे बोला, आप हट्टा में दारुवाली बाई के यंहा रहती थी, न मैंने आश्चर्य से हाँ कहा , वो, बताने लगा, मेरी बुआ जी के बारे में कि वे कितने बड़े लोग थे, उसीने मुझे बताया की, हमारी बुआ जी के घरसे जो मंदिर बनाया गया था , उसे ५ एकड़ जमीन दान में दी गयी थी ,
ओह, मेरा मुख खुला का खुला रह गया , बुआजी ने ये बात हमसे कभी नही कही थी, कि उनके परिवार से कितना दान दिया गया था , ये बात मुझे उनकी मृत्यु के बरसों बाद पता चली थी
सोचती हूँ, कितने बड़े थे, वे लोग, जिन्होंने १० कुंए बनवाने से लेकर सभी बड़े दान-पुण्य की बात कभी अपने मुख से नही कही, आजतो, लोग मंदिर में पत्थर लगाकर, अपना नाम लिखना नही भूलते ये भी कि मेरे घर में कह दिया गया था,कि बुआ जी की लाड़ली होकर भी, मुझे उनसे कुछ नही लेना है, और मैंने बुआ जी से एक एकड़ जमीन तक नही ली, लेकिन जिन्हे बुआ जी ने अपनी अथाह सम्पत्ति दी, उन्होंने बुआजी को तड़पा-तड़पा के मार डाले थे
Thursday 26 November 2015
bnaras ki byar: is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upy...
bnaras ki byar: is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upy...: तू शब्दों से परे एक अहसास इतनी खबसूरत जैसे फागुनी पलाश ऐसी मदमाती जैसे शिशिर में फूला हो पलाश तेरा आना जीवन में लगता है ...
is blog me likhi, sabhi kavitayen meri h, iska upyog meri ijajat se hi kre
तू
शब्दों से परे
एक अहसास
इतनी खबसूरत
जैसे फागुनी पलाश
ऐसी मदमाती
जैसे शिशिर में
फूला हो पलाश
तेरा आना जीवन में
लगता है
ज्यूँ लगा हो मधुमास
तेरी बातें ऐसी
मानो तरंगित हो उल्लास
तू है , जन्हा लगता है
सितारों से जगमगाता आकाश
ए , परी , ए अप्सरा
वंहा कंही स्वर्ग होगा
जन्हा होगी तू , तेरे आसपास
मेरे जख्मी दिल की
तू ही तो है , अबुझ प्यास
शब्दों से परे
एक अहसास
इतनी खबसूरत
जैसे फागुनी पलाश
ऐसी मदमाती
जैसे शिशिर में
फूला हो पलाश
तेरा आना जीवन में
लगता है
ज्यूँ लगा हो मधुमास
तेरी बातें ऐसी
मानो तरंगित हो उल्लास
तू है , जन्हा लगता है
सितारों से जगमगाता आकाश
ए , परी , ए अप्सरा
वंहा कंही स्वर्ग होगा
जन्हा होगी तू , तेरे आसपास
मेरे जख्मी दिल की
तू ही तो है , अबुझ प्यास
Sunday 22 November 2015
hnsa jaye akela
कोई
कोई ये न सोचे कि मई पैसे वाली हूँ
दरअसल लिखने की तलब मई सबकुछ भूल जाती हूँ
ये भी कि मई कोई पैसे वाली नही
बीएस लिखने की धुन रहती हैं
पुराने दिनों को कुरेदती हूँ
जैसे कोई। ………। जाने
बुआ जी के यंहा से ही गीतों से गया , हालाँकि मई गायिका नहीं , पर सुनने की हमेशा कोशिश होती हैं
वो जो भेटनी के उनमें एक गीत सबका सरताज था, जो सभी औरतें गाती थी विवाह में तो, जैसे मिलकर गाती थी, वो बहुत अद्भुत होता था, जैसे उनकी ह्रदय की रागिनी गूंजती थी
वो गीत था , जो वे लहकते हुए गाती थी
हम पर्देशिन माई पहुनिन ओ
झूला की झुलनवाली उड़ चली ओ और झूला पढ़ा बनवान
मेरी माई ओ, हम परदेशिन मई पहुंिन ओ
(अर्थात, हम तो , परदेश जाने वाली मेहमान है, माँ
जो, तेरे घर -आँगन में खेलती और झूला झूलती थी , वो अब दूर जा रही है , ऐसा गाते हुए, औरतें तो रोती थी, साथ में दुल्हन भी अपनी बहन व् माँ के गले लगकर रोती जाती थी, इसे ही भेटनी कहते थे , आगे भी उनका जीवन कष्ट -पूर्ण होता था, कहीं सुख तो, कंही दुःख होता था )
मुझे आज भी ओ गीत गाने का मन होता है, तो मई अकेले ही इसे गुनगुनाते हुए, बीते वक़्त को याद करती हूँ )
हम पर्देशिन माई पहुंिन ओ
तेरी आँगन की खेलन वाली उड़ चली ओ, और आँगन परो बनवान , मोरी माई ओ..........
(एक और बात याद आ रही है , ये गीत जब हम सब बहनें पीहर में थी , तो, हम सबके लिए हंसी -मजाक का भी पर्याप् था, हम सब हँसते हुए इसे गाती थी ,कि कैसे सब गांव वाली इसे गाती है, खासकर , मेरी दो छोटी बहनें तो ,इसपर बहुत हंसती, और एक -दूसरे को चिड़ाहटी भी थी )
कोई ये न सोचे कि मई पैसे वाली हूँ
दरअसल लिखने की तलब मई सबकुछ भूल जाती हूँ
ये भी कि मई कोई पैसे वाली नही
बीएस लिखने की धुन रहती हैं
पुराने दिनों को कुरेदती हूँ
जैसे कोई। ………। जाने
बुआ जी के यंहा से ही गीतों से गया , हालाँकि मई गायिका नहीं , पर सुनने की हमेशा कोशिश होती हैं
वो जो भेटनी के उनमें एक गीत सबका सरताज था, जो सभी औरतें गाती थी विवाह में तो, जैसे मिलकर गाती थी, वो बहुत अद्भुत होता था, जैसे उनकी ह्रदय की रागिनी गूंजती थी
वो गीत था , जो वे लहकते हुए गाती थी
हम पर्देशिन माई पहुनिन ओ
झूला की झुलनवाली उड़ चली ओ और झूला पढ़ा बनवान
मेरी माई ओ, हम परदेशिन मई पहुंिन ओ
(अर्थात, हम तो , परदेश जाने वाली मेहमान है, माँ
जो, तेरे घर -आँगन में खेलती और झूला झूलती थी , वो अब दूर जा रही है , ऐसा गाते हुए, औरतें तो रोती थी, साथ में दुल्हन भी अपनी बहन व् माँ के गले लगकर रोती जाती थी, इसे ही भेटनी कहते थे , आगे भी उनका जीवन कष्ट -पूर्ण होता था, कहीं सुख तो, कंही दुःख होता था )
मुझे आज भी ओ गीत गाने का मन होता है, तो मई अकेले ही इसे गुनगुनाते हुए, बीते वक़्त को याद करती हूँ )
हम पर्देशिन माई पहुंिन ओ
तेरी आँगन की खेलन वाली उड़ चली ओ, और आँगन परो बनवान , मोरी माई ओ..........
(एक और बात याद आ रही है , ये गीत जब हम सब बहनें पीहर में थी , तो, हम सबके लिए हंसी -मजाक का भी पर्याप् था, हम सब हँसते हुए इसे गाती थी ,कि कैसे सब गांव वाली इसे गाती है, खासकर , मेरी दो छोटी बहनें तो ,इसपर बहुत हंसती, और एक -दूसरे को चिड़ाहटी भी थी )
Friday 20 November 2015
,गीतों का चलन आजकल नही रहा है, नही गाते , पर जो उसवक्त औरतें गाती थी
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
तेल चढ़ने और हल्दी के गीत , वो उनके घरके बच्चे भी खूब गाते जाते , और और विवाह का खेल चलता
मेरी फुआ-बहन के बच्चे तो, तब इतना खेलते, वे चाचा के बच्चों संग जब देखो शादी का खेलते, क्यूंकि उनकी ५ बुआ थी, सबकी शादी होते रहती, वे देखते, और वंही खेल उनका बन जाता था, तब टीवी तो होता नही था
बीएस एक दूल्हा, एक दुल्हन बना घर में पाटा रखकर उन्हें लाते, इसमें जो दुल्हन बनती, उसका सर झुका कर चलना और एक कपडे से सर छुपा कर घुंगट करना इन्हीं उनके खेल
गाना भी कौनसा गाते थे , जो उनकी दादी शादी में गाती थी
डोंगर डोंगर घानी चले ओ, घानी चले
राई चम्पावती तिलिया को तेल। .......
कौन तेरो , पांव पखारे रे बारे बँन्ना
कौन तेरी रे सेवादानी में
बहनी तेरी पाँव पखारे रे बारे बन्ना
जीजा तेरी सेवा दानी में। ………
ऐसा वे सभी रिश्तों का नाम लेकर गाते थे
ये डोंगर डोंगर घानी चलना उस संस्कृति का धोतक था, जब टेली की घानी में तेल पिरया जाता था , टेली के यंहा के कोल्हू से सभी अपनी राई लेजाकर तेल पीरा लाते थे, तबके अलसी के तेल का कहना ही क्या
सब सामान घर काउपजा और शुद्ध -सात्विक होता था, ये हमारी कृषि संस्कृति की दें थी कि किसी चीज की कमी नही होती थी , पर बाद में हमने टेली को ही टेली तमोली -गुड की भेलि कहना शुरू किया फिर तेल के घने बंद हो गए
हमारे कलार जाती में टेली भी समाहित होते है, इसलिए ये गीत गाते थे, सावजी और साहू जी का व्यव्शाय ही, शराब व् तेल के घने थे जो, भामाशाह के वंशज थे,खुदको, शाहू कहकर , अपने शाह होने को मुगलों के भय से छिपाने लगे थे
आज सोचती हूँ, हमे आजादी के बाद क्या मिला , हमर व्यव्शाय रहे नही, और आरक्षण ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया , हम अपनी शक्ति को बुल गए है
क्रमश क्रमशः
hnsa jaye akela
भेटनी के हमारी जाति के गीत भी बहुत मार्मिक थे , थे इश्लीए की अब उन्हें कोई नही गाता , जो गाती थी, वे स्त्रियां अब जीवित नही हैं , कुछ भेटोनी के गीत लिख हूँ
हम चले माई हम चले , मोरी माई हम चले , पारुल देश
साकार को मोंगरा मोरी माई दहे दहे
मोरी माई दोपहरी गए ओ कुम्हलाये
मयके की बेटी मोरी माई दहे दहे
ससुराल में गयी ओ कुम्हलाये
छोटे से मुंह की माई घ्येली
मोरी बहनी, हिल मिल, पनिया जाए
फुटन लगी माई घ्येली
मोरी बहनी छुटन लगे ओ साथ
कुम्हार जुड़ाबो माई घ्येली
मायके में जुड़ाबो साथ
ये गीत गाते हुए , गांव की औरतें तब रोने लगती थी
अब, न चावल में सुगंध रही
न ही गाँवो में वो आत्मीय स्त्रियां रही
रिश्ते-नाते भी बिखरना लगे है
वे सब बाल-विवाह में कैसे ससुराल आती थी
और, कैसे जीवन करती थी कितना काम, कितनी मर्यादा
सब निभाती थी , बातें सुनती थी, म्हणत करते जीवन गुजरता था
जब बुआ जी की दहलीज ड्योढ़ी में रात रात तक गाने गाती थी
फिर बहुत देर तक चुप बैठकर, पीहर की याद कर अपनी आँखे पोंछ लेती थी
वो, वक़्त बहुत जाहिं था
वे सब सुबह से शाम तक घर, ओसारे के काम में लगी रहती थी
हम चले माई हम चले , मोरी माई हम चले , पारुल देश
साकार को मोंगरा मोरी माई दहे दहे
मोरी माई दोपहरी गए ओ कुम्हलाये
मयके की बेटी मोरी माई दहे दहे
ससुराल में गयी ओ कुम्हलाये
छोटे से मुंह की माई घ्येली
मोरी बहनी, हिल मिल, पनिया जाए
फुटन लगी माई घ्येली
मोरी बहनी छुटन लगे ओ साथ
कुम्हार जुड़ाबो माई घ्येली
मायके में जुड़ाबो साथ
ये गीत गाते हुए , गांव की औरतें तब रोने लगती थी
अब, न चावल में सुगंध रही
न ही गाँवो में वो आत्मीय स्त्रियां रही
रिश्ते-नाते भी बिखरना लगे है
वे सब बाल-विवाह में कैसे ससुराल आती थी
और, कैसे जीवन करती थी कितना काम, कितनी मर्यादा
सब निभाती थी , बातें सुनती थी, म्हणत करते जीवन गुजरता था
जब बुआ जी की दहलीज ड्योढ़ी में रात रात तक गाने गाती थी
फिर बहुत देर तक चुप बैठकर, पीहर की याद कर अपनी आँखे पोंछ लेती थी
वो, वक़्त बहुत जाहिं था
वे सब सुबह से शाम तक घर, ओसारे के काम में लगी रहती थी
Wednesday 18 November 2015
hnsa jaye akela
सब जैसे कंही जा रहे है, दूर अपने वतन से , अपनी धरती से ,तब मई बुआ जी के उस अतीत के घर के घूरो को याद कर रही हूँ, वो, घूरो जन्हा गौओं का गोबर फेंकते थे , जो गोबर उठाते थे , उनकी दयनीय जिंदगी में मनो-मालिन्य नही था। हम बरसों के बाद पते है, कि वे कामवाली अब नही है, अब उन्हें अधिकार मिल गए है. तब वे प्रातः से आते थे, हमारे घर में बिस्तर उठाने से लेकर बिस्तर बिछाने तक का काम वे कामवाली करते थे, सच समझा, और आज कंही के नही है
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
मेरी जिंदगी उस लेखन-कला के पीछे भटकते हुए, मेरे इकलौते बेटे के जीवन को भी आज अस्थिर कर गयी है
मई अपने दिल की तड़प किससे कहूँ,ंऐ कितना अच्छा लिख रही हूँ, ये कौन जानेगा, मेरी अपनी स्क्रिप्ट भेजते जिंदगी खाप रही है.
मई रातदिन प्रधान-मंत्री को यदि लिखती हूँ, तो उसे कौन पढ़ता है, इसका कोई नतीजा नही मिलता, मेरी रातदिन की म्हणत मेहनत बेकार जाती है , फिर भी मई नही रूकती, अपने काम में क्यों लगी हूँ, ये कैसी धुन है , जो मुझमे लगी है, मई आश्चर्य में हूँ , अपने लिए। ……।
बुआ जी अपने काम में सुबह से लगी होती थी, घर में खाना वंही बनती थी, कामवाली खाना नही बनाते थे , बुआ जी कभी घर भी लिपटी थी, और कभी वे जब माहि-दही बिलो रही होती , तो मई उनकी मथानी को पकड़ कर, अपना योगदान देती थी, तब मई २-ढाई बरस की थी , और जब बुआजी , सिलबट्टे से चटनी पीस रही होती तो, मई उनके कंधो पर झूल रही होती थी, ये भी मुझे प्रिय था, बुआ जी के स्नेह का प्रतिदान मैं उतनी नन्ही सी उम्र में देती थी , यदि आज मैं किसी को उनके स्नेह या आदर का प्रतिदान न दूँ, तो , मेरा मन कचोटता है. पर
मेरे प्रति आदर मेरे समाज व् जाति वालों में नही हैं, वे मुझपर ठठा कर हंस रहे है. मैंने यदि १० किताबे छपाई हैं तो, उनके लिए इसका मतलब रद्दी भर है, यदि समाज इतना अस्पृह हो जाये की आपके लिखे को महज रद्दी माने तो, आप उस अपढ़ता की भयावता का अनुमान लगा सकते हैं.
पर , मेरी बुआ जी अनपढ़ होकर भी कितनी सांस्कृतिक थी, कितनी सहिस्णु कि उनके पला-पोषण का आनंद मैं आज भी उठा रही हूँ, वह अपरिमित ऊर्जा पलभर भी मुझे रिक्त नही कर सकी है
बुआ जी कभी चकिया जिसे जाता भी कहते थे, उसमे दाल व् चूनी पिसती थी, जिससे बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनती थी, जो कि हमें सेहतमंद रखते थे, जब वे चकिया में दाल दल रही होती , तो, मई भी उनके साथ बैठकर, चकिया चलती, उसकी मुठ पकड़कर घूमती थी, बुआ जी तब मग्न होकर , जो गीत गाती थी, उनमें वे भावनाएं होती थी, जो उनके जीवन में गुजरे कल को झलकती थी।
बुआ जी के घर गाये , जाति के क्षेत्रीय गीतों की मिठास मुझे बहुत उम्र तक आलोड़ित करती रही थि. बुआ जी
तब गति थी , भावा ची झाली पोरी , बहनी ची माया बिसरली। ……। ऐसा कुछ मराठी में
और, हमारी कलार जाती के गीत अपनी भाषा में गाती थी
विवाह में भेटोनी के गीत तो, इतने मार्मिक होते थे, कि गाते हुए उनकी आँखें झलकने लगती थी
वे गाती थी , बाबुल से भेटनी के गीत अपने
अपने बाबुल को मैं जो भेंटु
मोरे बाबुल भेंटु, मियरा लगाये। ……
अपने बाबुल की जो होती, मैं बेटा
मोरे बाबुल रहती मंडली छाये
कोई कोई गाय माई निठुर मन की
मोरे बाबुल नहीं करे, बछड़ा की याद
कोई , कोई मई निठुर मन की
नही करे , माई बिटिया की याद। ………
ये गीत इतने जज्बाती होते थे , कि गेट हुए, बुआ जी रोने लगती थी
जैसे अपने दुखों से, एकाकी जीवन से वे दो पल को शिकवा कर रही हों
शेष कल
Tuesday 17 November 2015
hnsa jaye akela
बुआजी के घर से जैसे आजतक नही निकली हूँ , कल-परसों जब डॉ, सुनीता मनु का संस्मरण पढ़ रही थी, तो आंसू बहने लगे थे, और मई भी वैसा ही लिखना चाहती हूँ
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
बुआ जी के घर के सभी किरदार और वंहा के परिवेश से बहुत जुडी रही हूँ वंहा जो सुबह होती थी , उसकी अलग-अलग यादें है
बुआ जी ने कितने परिश्रम से वो माहौल बुना था
आज तो, वे नही है , पर जब भी याद आती है, अलसुबह उनके घर के छपरी में सामने बैठ कुल्ला करती , या पीछे रसोई में कुछ बनाती बुआ जी ……।
इसके अलावा वो, पीछे के आँगन में धीरोजा आकर बैठती थी, घर का काम अपनी गति से चलता था
और , गर्मी-बारिश व् शीत के दिनों का अलग अलग अहसास था, वंहा पर सब कुछ अपना सा था
जब यंहा कभी भोर के तारे देखते हूँ , तो बुआ जी के घर की जाड़े की सुबहे याद आ जाती है
शेष कल
Sunday 15 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: आज वक़्त है, कि कुछ लिखूं, क्या पता कल वक़्त मिले न मिले आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी ...
hnsa jaye akela
आज वक़्त है, कि कुछ लिखूं, क्या पता कल वक़्त मिले न मिले
आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी
बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी यादें भी क्या खूबी है, कि हमें सब कुछ जब याद आता है, तो हम रजाई में दुबके बीते दिनों को याद करते है
आज की , पीढ़ी को ये सब नही रहा , क्यूंकि, उन्हें जिंदगी का सच झेलना है , आज वैसी रीडिंग का वक़्त नही मिल रहा है . ये सही है, की ब्लॉग लिखे जा रहे है
मुझे भी बुआ जी के घर से आज भी उरह्जा मिलती है वंहा का शांत माहौल मुझे खेलने व् पढ़ने के अनुकूल था
वंहा सब काम नौकर व् कामवाली करते थे , बुआ जी के घर रही तबतक , कुछ काम नही आता था , आज भी बहुत से कामो का आलास आता है, अध्ययन व् लिखना ही पसंद है, पर आर्थिक सत्य भी तो है
जिंदगी जीने पैसा होना , मई जो लिखती हूँ , उसका मुझे कुछ हासिल नही होता ,
अब अपने को लेखिका के साथ सोशल वर्कर भी कहना चाहती हूँ
और, ये अपने लेटर हेड में भी लिखूंगी
जिंदगी भर कुछ न कुछ करने का वाद जिंदगी से किया है, देखे,
मानती हूँ , की कोई शक्ति मुझसे ये करवाती है , तभी तो, मैंने सोचा है, कि मैं इंडिया रिफॉर्म्स रेसोलुशन चलाऊंगी , हमे लोकतंत्र का पथ यंहा के रहवासियों को पढ़ना है, तभी हम डेमोक्रेसी की रक्षा कर सकेंगे
अभी ये हंस कहा तक क्या करता है, देखे यंहा, लिखने में बहुत, डिस्टर्ब होता रहा, जो छह रही थी,नही लिख सकी
जब डूबकर लिखती हूँ, तो वो कुछ और ही होता है
आज इतना ही, रोज का वादा है, लिखने का
आज एक पुरानी पत्रिका से एक संस्मरण देख रही थी
बहुत अच्छा लग रहा था, लगा ये पुरानी यादें भी क्या खूबी है, कि हमें सब कुछ जब याद आता है, तो हम रजाई में दुबके बीते दिनों को याद करते है
आज की , पीढ़ी को ये सब नही रहा , क्यूंकि, उन्हें जिंदगी का सच झेलना है , आज वैसी रीडिंग का वक़्त नही मिल रहा है . ये सही है, की ब्लॉग लिखे जा रहे है
मुझे भी बुआ जी के घर से आज भी उरह्जा मिलती है वंहा का शांत माहौल मुझे खेलने व् पढ़ने के अनुकूल था
वंहा सब काम नौकर व् कामवाली करते थे , बुआ जी के घर रही तबतक , कुछ काम नही आता था , आज भी बहुत से कामो का आलास आता है, अध्ययन व् लिखना ही पसंद है, पर आर्थिक सत्य भी तो है
जिंदगी जीने पैसा होना , मई जो लिखती हूँ , उसका मुझे कुछ हासिल नही होता ,
अब अपने को लेखिका के साथ सोशल वर्कर भी कहना चाहती हूँ
और, ये अपने लेटर हेड में भी लिखूंगी
जिंदगी भर कुछ न कुछ करने का वाद जिंदगी से किया है, देखे,
मानती हूँ , की कोई शक्ति मुझसे ये करवाती है , तभी तो, मैंने सोचा है, कि मैं इंडिया रिफॉर्म्स रेसोलुशन चलाऊंगी , हमे लोकतंत्र का पथ यंहा के रहवासियों को पढ़ना है, तभी हम डेमोक्रेसी की रक्षा कर सकेंगे
अभी ये हंस कहा तक क्या करता है, देखे यंहा, लिखने में बहुत, डिस्टर्ब होता रहा, जो छह रही थी,नही लिख सकी
जब डूबकर लिखती हूँ, तो वो कुछ और ही होता है
आज इतना ही, रोज का वादा है, लिखने का
Saturday 14 November 2015
bnaras ki byar: hnsa jaye akela
bnaras ki byar: hnsa jaye akela: आज से ये फिरसे लिख रही हूँ, क्या है , कि , हंसा जाये अकेला को, किसी ने शरारत में हमसा जाये अकेला कर दिया था , मुझे ये भी पता है,, की ये नतत...
hnsa jaye akela
आज से ये फिरसे लिख रही हूँ, क्या है , कि , हंसा जाये अकेला को, किसी ने शरारत में हमसा जाये अकेला कर दिया था , मुझे ये भी पता है,, की ये नततपन शरारत कौन किये है, खैर, ईश्वर उसे सलामत रखे
आजकल, मई बहुत सारा लिखना छटी हूँ, लेकिन क्या लिखू, जो, घर में सोचा था , वो यंहा खुल जाती हु,
और गलतियों की भरमार रहती है, इश्लीए , मेरे ब्लॉग नही उठते , पर मई हिम्मत नही हारती।
सोचा है, जो रोज करती हूँ, वंही लिखूंगी, और जब आज कीखबर , देखि तो, सन्न रह गयी, पूरी दुन्या
दुनिया जैसे बारूद के ढेर को सजाये बैठी है. दिवाली में इंडिया के साथ फ़्रांस में फटके नही बम फोड़ रहे है, आतंकी , ये वाकई दुखद है।
ये जो कटटरता से धर्म का इजहार करते है, उसकी परिणति है. हिन्दुओ ने तो ११ वि सदी के पहले से आतंक झेले हा, कल्पना नही कर सकते , की उसवक्त विदेशी हमले से जनता कितनी लूटी व् मारी गयी थी
(क्रमश)
आजकल, मई बहुत सारा लिखना छटी हूँ, लेकिन क्या लिखू, जो, घर में सोचा था , वो यंहा खुल जाती हु,
और गलतियों की भरमार रहती है, इश्लीए , मेरे ब्लॉग नही उठते , पर मई हिम्मत नही हारती।
सोचा है, जो रोज करती हूँ, वंही लिखूंगी, और जब आज कीखबर , देखि तो, सन्न रह गयी, पूरी दुन्या
दुनिया जैसे बारूद के ढेर को सजाये बैठी है. दिवाली में इंडिया के साथ फ़्रांस में फटके नही बम फोड़ रहे है, आतंकी , ये वाकई दुखद है।
ये जो कटटरता से धर्म का इजहार करते है, उसकी परिणति है. हिन्दुओ ने तो ११ वि सदी के पहले से आतंक झेले हा, कल्पना नही कर सकते , की उसवक्त विदेशी हमले से जनता कितनी लूटी व् मारी गयी थी
(क्रमश)
Tuesday 10 November 2015
Wednesday 4 November 2015
Wednesday 21 October 2015
Monday 19 October 2015
मन्नू ने बहुत दिनों बाद लिखा
मृगनयनी
तुम कहा हो
जब तुम प्रोफाइल पर अपना पिक्चर बदलती हो
तो, आभास में झलक जाती हो,
ये तो बताओ कि
स्वीट हार्ट
आजकल कंहा हो
सच तुमसे मिले बिना
बहुत दिन हो गए है फिर भी
तुम्हारा दिए जलाते हुए झलकना
कुछ अच्छा शगुन देता है
डिअर जन्हा भी रहो
मस्त रहोगी
सबको खुशियां ही बतओगि
ये शाश्वत सत्य है ,
तुम्हारे बारे में
और दूर रहकर भी
तुम्हारा आभास में झलकना
कितना सुखकर है
कितनी महान औषधि हो ,
तुम , मेरे सभी दर्द की
दर्द -निवारक दवा हो
जैसे तुम ईश्वर की दी हुई दुआ हो
नही पता तुमसे कौनसा
किस जन्म का रिस्ता है
खुश रहो ,
की खुशियां भी तुम्हारा मुख देखती होगी
मन्नू
(मन्नू ने ये इश्लीए लिखा, कि वो, रम्भा से किसी भी fb pr link nhi h)
मृगनयनी
तुम कहा हो
जब तुम प्रोफाइल पर अपना पिक्चर बदलती हो
तो, आभास में झलक जाती हो,
ये तो बताओ कि
स्वीट हार्ट
आजकल कंहा हो
सच तुमसे मिले बिना
बहुत दिन हो गए है फिर भी
तुम्हारा दिए जलाते हुए झलकना
कुछ अच्छा शगुन देता है
डिअर जन्हा भी रहो
मस्त रहोगी
सबको खुशियां ही बतओगि
ये शाश्वत सत्य है ,
तुम्हारे बारे में
और दूर रहकर भी
तुम्हारा आभास में झलकना
कितना सुखकर है
कितनी महान औषधि हो ,
तुम , मेरे सभी दर्द की
दर्द -निवारक दवा हो
जैसे तुम ईश्वर की दी हुई दुआ हो
नही पता तुमसे कौनसा
किस जन्म का रिस्ता है
खुश रहो ,
की खुशियां भी तुम्हारा मुख देखती होगी
मन्नू
(मन्नू ने ये इश्लीए लिखा, कि वो, रम्भा से किसी भी fb pr link nhi h)
Sunday 18 October 2015
bnaras ki byar: मेरे बेटे सोनू को किसी भी बात को लेकर मुझसे हंसी क...
bnaras ki byar: मेरे बेटे सोनू को किसी भी बात को लेकर मुझसे हंसी क...: मेरे बेटे सोनू को किसी भी बात को लेकर मुझसे हंसी करता रहता है फिर हम दोनों उसी बात पर हँसते है आज एक शब्द को लेकर हम दोनों हंसने लगे , ...
मेरे बेटे सोनू को किसी भी बात को लेकर मुझसे हंसी करता रहता है
फिर हम दोनों उसी बात पर हँसते है
आज एक शब्द को लेकर हम दोनों हंसने लगे ,
वो, शब्द था, तत्काल
मैंने सोनू को बताई , माँ कहती थी, सपने में कोई तत्काल दिखा
मेरी माँ की कोई भी बात पर, सोनू इतना हँसता है
बताने लगा , एक बार गांव गए थे , तो, सब रत में सोये थे ,
हमारी खाट माँ के बिस्तर से लगी थी, रात ४ बजे सुबह , सोनू की वॉच पर मुर्गा की आवाज में अलार्म
बजने लगा , तो माँ और ओढ़कर सो गयी , सुबह मुझे बताने लगी, कि उसे तत्काल मुर्गे की आवाज सुनाई देते रही , ये सुनकर हम सब बहुत हँसे , क्यूंकि, वो तो, मुर्गा घडी में अलार्म में बोल रहा था , सोनू को तो, माँ की बात पर जैसे हंसने का बहाना चाहिए , बताने लगा , कि माँ कहती है, की आँगन में रात को कपड़े सुखाना नही चाहिए , वरना ग़ुब्बड यानी उल्लू आकर कपडे चोर लेता है , सोनू बोला क्या उल्लू माँ के कपडे पहनता है, चोरकेँ
माँ जब कहती है, की उल्लू रात को कपड़े लेजाकर धोता है, तो, मेरा भाई कहता है, उल्लू को कोई काम नही है, जो सबके कपड़े धोता है
मई सोचती हूँ, जिसे कपडे धोने का आलस आये, वो, रात कपड़े बहार रख दे, उल्लू धोकर रख देगा
सोनू कहता है, अब घडी में सबकी आवाज लगा देंगे , और रात को माँ के बिस्तर पर रख देंगे , उल्लू की आवाज तो, पिंजला की आवाज, क्युकी माँ इन आवाजों से ही डर्टी है
माँ जब कहती थी , बाई , हो गया
तो, सोनू हमेशा कहता , माँ का कब होगा , हमेशा तो कहती है , बाई, हो गया
फिर हम दोनों उसी बात पर हँसते है
आज एक शब्द को लेकर हम दोनों हंसने लगे ,
वो, शब्द था, तत्काल
मैंने सोनू को बताई , माँ कहती थी, सपने में कोई तत्काल दिखा
मेरी माँ की कोई भी बात पर, सोनू इतना हँसता है
बताने लगा , एक बार गांव गए थे , तो, सब रत में सोये थे ,
हमारी खाट माँ के बिस्तर से लगी थी, रात ४ बजे सुबह , सोनू की वॉच पर मुर्गा की आवाज में अलार्म
बजने लगा , तो माँ और ओढ़कर सो गयी , सुबह मुझे बताने लगी, कि उसे तत्काल मुर्गे की आवाज सुनाई देते रही , ये सुनकर हम सब बहुत हँसे , क्यूंकि, वो तो, मुर्गा घडी में अलार्म में बोल रहा था , सोनू को तो, माँ की बात पर जैसे हंसने का बहाना चाहिए , बताने लगा , कि माँ कहती है, की आँगन में रात को कपड़े सुखाना नही चाहिए , वरना ग़ुब्बड यानी उल्लू आकर कपडे चोर लेता है , सोनू बोला क्या उल्लू माँ के कपडे पहनता है, चोरकेँ
माँ जब कहती है, की उल्लू रात को कपड़े लेजाकर धोता है, तो, मेरा भाई कहता है, उल्लू को कोई काम नही है, जो सबके कपड़े धोता है
मई सोचती हूँ, जिसे कपडे धोने का आलस आये, वो, रात कपड़े बहार रख दे, उल्लू धोकर रख देगा
सोनू कहता है, अब घडी में सबकी आवाज लगा देंगे , और रात को माँ के बिस्तर पर रख देंगे , उल्लू की आवाज तो, पिंजला की आवाज, क्युकी माँ इन आवाजों से ही डर्टी है
माँ जब कहती थी , बाई , हो गया
तो, सोनू हमेशा कहता , माँ का कब होगा , हमेशा तो कहती है , बाई, हो गया
Friday 16 October 2015
Thursday 15 October 2015
Monday 12 October 2015
Friday 9 October 2015
Thursday 8 October 2015
Tuesday 6 October 2015
Monday 5 October 2015
Sunday 4 October 2015
Saturday 3 October 2015
Thursday 1 October 2015
Tuesday 29 September 2015
Monday 28 September 2015
Friday 25 September 2015
Wednesday 23 September 2015
Tuesday 22 September 2015
Friday 18 September 2015
इधर
इधर मन्नू और रम्भा का मिलना बंद हो गया
तो , एक दिन मन्नू ने स्वप्न में रम्भा को देखा
मन्नू ने देखा कि रम्भा श्रृंगार करते हुए दर्पण में निहार रही है
इतनी अतीव सुंदरी प्रियतमा को यूँ देख मन्नू को नही सुझा कि क्या कहे
किन्तु स्वप्न में ही सही , मन्नू से चुप न रहा गया
वो, बोले ---प्रिये , ये तुम अजंता की मूरत जैसी दर्पण में निरख कर जब काजल लगती हो तो
अभी वाक्य पूरा भी नही हुआ था , कि रम्भा ने वंही पेंसिल उठकर मन्नू को फेंक कर मारी
जिससे वो, काजल लगा रही थी , वो, काजल मन्नू के , और स्वप्न अधूरा रह गया। .......
इधर मन्नू और रम्भा का मिलना बंद हो गया
तो , एक दिन मन्नू ने स्वप्न में रम्भा को देखा
मन्नू ने देखा कि रम्भा श्रृंगार करते हुए दर्पण में निहार रही है
इतनी अतीव सुंदरी प्रियतमा को यूँ देख मन्नू को नही सुझा कि क्या कहे
किन्तु स्वप्न में ही सही , मन्नू से चुप न रहा गया
वो, बोले ---प्रिये , ये तुम अजंता की मूरत जैसी दर्पण में निरख कर जब काजल लगती हो तो
अभी वाक्य पूरा भी नही हुआ था , कि रम्भा ने वंही पेंसिल उठकर मन्नू को फेंक कर मारी
जिससे वो, काजल लगा रही थी , वो, काजल मन्नू के , और स्वप्न अधूरा रह गया। .......
आजकल वर्षा रुक कर होती है , जैसे थोड़ा सा सुस्ताने लगते है, उनके पास देने को नही होता , मेघों का भंडार चूक जाता है , रीता रह जाता है। लेकिन पहले वे बदल बरसते थे, बरसते जाते थे , मेघ मल्हार गूंजता था, वर्षा राग और, प्रकृति की अलमस्त रागिनी से दिन रात जैसे गूंजा करते थे.
जब पावस घर की ओरनियों ,छतो, आँगन, पेड़ों, पत्तीओं , और, फुनगिों पर बरसता था, जैसे सबका मन सरसता था, एक समरसता थी जीवन में, झड़-झंखाड़ , खरपतवार , मेहँदी के हरे पत्तों को पिस्ता , मसलता , सावन रच जाता था , सबके मन और जीवन मे. गौरय्या की तेर , देर-सबीर, तिहुँकती , टिटिहरी , और मूंगे पर कौंवे की कांव कांव से गूंजता जगता, अल्सभोर. पेड़ों पर कुनमुनाते , पखेरुनों का गुनगुनाना , और बुआ जी उठकर , चूल्हा जला कर, सामने जब कुल्ला लर रही होती, तब गली में अँधेरा होता, तब बसंता एक धुंधली छाया सी,आते दिखती, सर पर, गोबर की टोकरी रखे , इसका मतलब ये नही की वे गरीब थे, बहुत जमीने होती, जायदाद थी, पर म्हणत से जीवन जीते , वो कृषक संस्कृति थि. घर आँगन से लेकर ढोलों तक अनाज भरा व् बिखरा होता। बहुत से औरतें उसे झड़-पछोर कर रखती थी।
किसान की बेटी -भतीजी हूँ, जब भी लिखती हूँ, खेती व् खलिहानों की जिंदगी लिखती हुँ. लिखती हूँ, की जीविका के साधन क्या थे , आज भी प्रधान मंत्री जी को लिखती हूँ, की हमारी संस्कृति कृषि की थि. हम पढ़ -लिख कर यदि कृषि-प्रबंधन करे, देश को कभी भी अनाज की कमी नही जा सकती, इन्ही, मई राष्ट्रपति जी को लिखुँगी. देश से विदेश जाने के पहले , एक बार देख तो, लो मेरे उस देश को जो ५००० वर्षों से समृद्धि का इतिहास रहा है, जन्हा मंदिरों के शिखर स्वर्णजड़ित रहे है.ese हीरे मोतियों से भरे इस देश के रमणीक तटों पर, जो संस्कृति थी, वो दलालों की नही , खेती करने वालों की थि. थी तब, आज ये चोरों व् चाटुकारों का देश कैसे हो गया , ये सोचना हगा, जन्हा ताले घरों में नही लगते थे , वो, अकर्मणयों का देश कैसे हो गया। ये कर्मठ राग आज आरक्षण राग में कैसे बदल गया। क्या हमने वेदों को छिपकर , कंही अपनी शक्ति को तो, बंधन में नही डाला , हमें अपनी वो, ज्ञान सम्पदा को फिरसे सामने लाना होगा, और पोंगा-पंथ को मिटा कर वास्तविक ज्ञान को खोजना होगा। ऐसे आधार में विश्व-गुरु नही बन जाया करते, पहले अपनी विद्या को पता करो, कहा वह छिप गयी है, ऋषियों की ज्ञान-सम्पदा कहा बिला ग्यि…ये ये , अनुसंधान का विषय
जब पावस घर की ओरनियों ,छतो, आँगन, पेड़ों, पत्तीओं , और, फुनगिों पर बरसता था, जैसे सबका मन सरसता था, एक समरसता थी जीवन में, झड़-झंखाड़ , खरपतवार , मेहँदी के हरे पत्तों को पिस्ता , मसलता , सावन रच जाता था , सबके मन और जीवन मे. गौरय्या की तेर , देर-सबीर, तिहुँकती , टिटिहरी , और मूंगे पर कौंवे की कांव कांव से गूंजता जगता, अल्सभोर. पेड़ों पर कुनमुनाते , पखेरुनों का गुनगुनाना , और बुआ जी उठकर , चूल्हा जला कर, सामने जब कुल्ला लर रही होती, तब गली में अँधेरा होता, तब बसंता एक धुंधली छाया सी,आते दिखती, सर पर, गोबर की टोकरी रखे , इसका मतलब ये नही की वे गरीब थे, बहुत जमीने होती, जायदाद थी, पर म्हणत से जीवन जीते , वो कृषक संस्कृति थि. घर आँगन से लेकर ढोलों तक अनाज भरा व् बिखरा होता। बहुत से औरतें उसे झड़-पछोर कर रखती थी।
किसान की बेटी -भतीजी हूँ, जब भी लिखती हूँ, खेती व् खलिहानों की जिंदगी लिखती हुँ. लिखती हूँ, की जीविका के साधन क्या थे , आज भी प्रधान मंत्री जी को लिखती हूँ, की हमारी संस्कृति कृषि की थि. हम पढ़ -लिख कर यदि कृषि-प्रबंधन करे, देश को कभी भी अनाज की कमी नही जा सकती, इन्ही, मई राष्ट्रपति जी को लिखुँगी. देश से विदेश जाने के पहले , एक बार देख तो, लो मेरे उस देश को जो ५००० वर्षों से समृद्धि का इतिहास रहा है, जन्हा मंदिरों के शिखर स्वर्णजड़ित रहे है.ese हीरे मोतियों से भरे इस देश के रमणीक तटों पर, जो संस्कृति थी, वो दलालों की नही , खेती करने वालों की थि. थी तब, आज ये चोरों व् चाटुकारों का देश कैसे हो गया , ये सोचना हगा, जन्हा ताले घरों में नही लगते थे , वो, अकर्मणयों का देश कैसे हो गया। ये कर्मठ राग आज आरक्षण राग में कैसे बदल गया। क्या हमने वेदों को छिपकर , कंही अपनी शक्ति को तो, बंधन में नही डाला , हमें अपनी वो, ज्ञान सम्पदा को फिरसे सामने लाना होगा, और पोंगा-पंथ को मिटा कर वास्तविक ज्ञान को खोजना होगा। ऐसे आधार में विश्व-गुरु नही बन जाया करते, पहले अपनी विद्या को पता करो, कहा वह छिप गयी है, ऋषियों की ज्ञान-सम्पदा कहा बिला ग्यि…ये ये , अनुसंधान का विषय
Thursday 17 September 2015
ये jogeshwarisadhir@yahoo.co.in
ये
ये जो तुम दर्पण में देखकर
आँखों में अपनी
काजल आंजति हो,
रूपगर्विता सच तुम्हारा
ये सादगी पूर्ण रूप
ऐसा निखरता है
जैसे भादो मास में
मेघों में बिजुरी निखरती है
तेरा भोलापन भी
तब, लगता है तेजस्वी
जैसे , तेरी आँखों की झिलमिल
सपनों की बहार कहती है की,
आज गंगा की लहरों में
कितने दीप अरमानों के
लहराए है
तुम, ऐसे ही
अपनी आँखों में
काजल लगती रहना
और, मई दर्पण बन
तुम्हे निहारूं
ये
ये जो तुम दर्पण में देखकर
आँखों में अपनी
काजल आंजति हो,
रूपगर्विता सच तुम्हारा
ये सादगी पूर्ण रूप
ऐसा निखरता है
जैसे भादो मास में
मेघों में बिजुरी निखरती है
तेरा भोलापन भी
तब, लगता है तेजस्वी
जैसे , तेरी आँखों की झिलमिल
सपनों की बहार कहती है की,
आज गंगा की लहरों में
कितने दीप अरमानों के
लहराए है
तुम, ऐसे ही
अपनी आँखों में
काजल लगती रहना
और, मई दर्पण बन
तुम्हे निहारूं
Wednesday 16 September 2015
इस साल तो, वर्ष भी कम हुई , सारे त्यौहार सूखे निकल गए , वर्ष ऐसे हुई जैसे रस्म-अदायगी हो , मन को सब समझते है
मुझे तब की बारिश की याद आती है, ये कहूँगी, तो, सब कहेंगे , ये बात तो, पुरानी है , दरअसल , वर्ष वर्षा के माघ मेघ जब घुमड़ने लगते थे , तो तभी , बुआ जी के घर काम वालों को जो, खेती में काम करते उन्हें अड्वान्स में धान देते थे , २-३ दिन तो, धान गिनने में लगते , यूँ तो, धान का पट्टन उप्र होता था, किन्तु, जो रज्जन होता, वो धूल जिसे खकना खकाना कहते , पुरे घर भर में उड़ता था, और काम वालों की रेलमपेल लगी होती , जाने बेचारे कैसे अपने दिन बिताते थे, किन्तु, होते बहुत जीवट के थे , और, उनकी वो, म्हणत आज मुझे बहुत कुछ सहने की सकती शक्ति देती है
आप कहते होंगे, कैसा लिख रही है,
खैर , उन काम वालों का जीवन बहुत अभावों से भरा था, जाने कितनी कहानियां और इतिहास उनके जीवन भरे अतीत से निकलेंगे , सभी एक अलग किरदार, और, सबके चेहरे पर, निश्छल हंसी। …।
मुझे तब की बारिश की याद आती है, ये कहूँगी, तो, सब कहेंगे , ये बात तो, पुरानी है , दरअसल , वर्ष वर्षा के माघ मेघ जब घुमड़ने लगते थे , तो तभी , बुआ जी के घर काम वालों को जो, खेती में काम करते उन्हें अड्वान्स में धान देते थे , २-३ दिन तो, धान गिनने में लगते , यूँ तो, धान का पट्टन उप्र होता था, किन्तु, जो रज्जन होता, वो धूल जिसे खकना खकाना कहते , पुरे घर भर में उड़ता था, और काम वालों की रेलमपेल लगी होती , जाने बेचारे कैसे अपने दिन बिताते थे, किन्तु, होते बहुत जीवट के थे , और, उनकी वो, म्हणत आज मुझे बहुत कुछ सहने की सकती शक्ति देती है
आप कहते होंगे, कैसा लिख रही है,
खैर , उन काम वालों का जीवन बहुत अभावों से भरा था, जाने कितनी कहानियां और इतिहास उनके जीवन भरे अतीत से निकलेंगे , सभी एक अलग किरदार, और, सबके चेहरे पर, निश्छल हंसी। …।
Monday 14 September 2015
Friday 11 September 2015
hnsa jaye akela
अपने अतीत को हम क्यों याद करते है, सबकी अपनी वजहें होगी
मुझे लगता है, स्थि तौर पर , लिख देना , अपनों के साथ अन्याय होगा , उन्होंने जो खुद को दिए में बाटी की तरह जलाया था, तब हम आज यंहा तक पहुंचे
मेरी बुआ ने अपने को मिटा दिया था, मेरे सुखों के लिए
बुआ के घर की निष्कलुष शांति, तो तब थी, जब, उनका घर निविड़ एकांत था, वो, ऐसी प्रछन्न घिरा घर, एक और तो, बेल-बड़ी से घिरा था , दूसरी और, गौओं व् बैलों के कोठे थे, बड़े आँगन पीछे थे , सबसे पीछे घुडो था, जन्हा गउओं को गोबर डाला जाता था
वंही, एक,मूंगे का पेड़ पीछे की बाड़ी में थे,
बहुत साड़ी वनस्पति एक, दूसरी साइड की बाड़ी में थी , जन्हा मई जाकर कभी रीठे चुनकर, उन्हें पानी में डालकर, झाग निकालकर उसके साबुन होने का परख करती थी
और, एक गोमची का पेड़ था , जन्हा से लाल मोती जैसे फल गिरते थे, उन्हें जमा करती थी
और, जब सावन आता था, कितनी बारिश होती थी, तब पडोश की सहेलियां आती थी, और, सब मेंहदी के पत्ते पत्थर पर पीस कर, मेरे हाथों में रचती थी
kintu, is बरस जब बारिश नही हुई, तो इन्ही समझ में आ रहा है, कि बिना बारिश के वो राग नही सुन सकी हु, जो की मुझे वंहा बारिश में सुनने मिलता था
बहुत ही शांत मनोरम प्रातः और, बारिश में ओरनियों से गिरती वर्षा की बूंदों का अनवरत संगीत, सुबह जब, मूंगे मूंगें के पेड़ पर कौवा बोलता था, और आँगन में धीरोजा की पैरोडी चलती थी, सभी हँसते हँसते काम करते थे , और बुआ जी खाना बनती थी , कितना प्यारा लगता था, उनके हाथ की बनी मिश्रा रोटियों और घर में बनाये हुए सोंधा स्वाद। .......
छाछ
मुझे लगता है, स्थि तौर पर , लिख देना , अपनों के साथ अन्याय होगा , उन्होंने जो खुद को दिए में बाटी की तरह जलाया था, तब हम आज यंहा तक पहुंचे
मेरी बुआ ने अपने को मिटा दिया था, मेरे सुखों के लिए
बुआ के घर की निष्कलुष शांति, तो तब थी, जब, उनका घर निविड़ एकांत था, वो, ऐसी प्रछन्न घिरा घर, एक और तो, बेल-बड़ी से घिरा था , दूसरी और, गौओं व् बैलों के कोठे थे, बड़े आँगन पीछे थे , सबसे पीछे घुडो था, जन्हा गउओं को गोबर डाला जाता था
वंही, एक,मूंगे का पेड़ पीछे की बाड़ी में थे,
बहुत साड़ी वनस्पति एक, दूसरी साइड की बाड़ी में थी , जन्हा मई जाकर कभी रीठे चुनकर, उन्हें पानी में डालकर, झाग निकालकर उसके साबुन होने का परख करती थी
और, एक गोमची का पेड़ था , जन्हा से लाल मोती जैसे फल गिरते थे, उन्हें जमा करती थी
और, जब सावन आता था, कितनी बारिश होती थी, तब पडोश की सहेलियां आती थी, और, सब मेंहदी के पत्ते पत्थर पर पीस कर, मेरे हाथों में रचती थी
kintu, is बरस जब बारिश नही हुई, तो इन्ही समझ में आ रहा है, कि बिना बारिश के वो राग नही सुन सकी हु, जो की मुझे वंहा बारिश में सुनने मिलता था
बहुत ही शांत मनोरम प्रातः और, बारिश में ओरनियों से गिरती वर्षा की बूंदों का अनवरत संगीत, सुबह जब, मूंगे मूंगें के पेड़ पर कौवा बोलता था, और आँगन में धीरोजा की पैरोडी चलती थी, सभी हँसते हँसते काम करते थे , और बुआ जी खाना बनती थी , कितना प्यारा लगता था, उनके हाथ की बनी मिश्रा रोटियों और घर में बनाये हुए सोंधा स्वाद। .......
छाछ
Wednesday 9 September 2015
Tuesday 8 September 2015
Friday 4 September 2015
Thursday 3 September 2015
hnsa jaye akela
मुझे उस वक़्त की याद का वक़्त अब नही मिलता
सिर्फ वे बिम्ब है, जो स्मृति में उभरते है , कौंधते है
अतीत जो, इतना ज्यादा बेफिक्र था
खैर , वंहा मुझे बहुत से किरदार मिले , सभी से स्नेह मिला
वंहा , कोई मुझे नही डांटता था, न फटकारता था
मई न तो जिद्दी थी , न ही उत्पति , उत्पत्ति उत्पाती थी ,
मुझे बुआ जी के उतने बड़े घर में अकेले खेलने की आदत हो चली थी बुआ जी की सौत , जिसे सब, छोटी कहते थे , और मेरी बुआ जी को दारुवाली बाई, अर्थात शराब के ठेके होने से ये नाम उन्हें मिला था ,
अब, जब मई थी, ठेका नही था, बुआ जी सिर्फ खेती का काम नौकरों के भरोसे करवाती थी , अर्थात कृषि कर्म भी था, और स्वभाव भी। बहुत ही साधारण रहते थे, बहुत सम्पदा के बावजूद उथलापन नही थे, ये वे गांव के थे, या तब का ये आचरण था , कि सादा जीवन था
बहुत शांति रहती थी, सुबह उठकर , जब पीछे के घर में जाती , तो, वंहा अजीब सा धुंवा महसूस होता, उस एकांतवासी घर की वो, अलसुबह आज भी मुझे महसूस होती है
बुआ जी उठकर, चाय बनाती थी, मुझे दूध पिने की आदत नही थी , हमारे यंहा एक मुनीम जी भी थे
तब, बुआ जी की सौत थी , ठीक ही था सब कुछ , वक़्त पर खेती के काम होते थे,
मई तब छोटी थी, स्कूल नही जाती थी, वंहा आँगन में एक मेहतरानी आती थी , जो मेरी धाय माँ जैसी थी , वो, मुझे देखते ही, ऐसे कोर्निश सलाम करती थी, जैसे मई राजा हूँ, मुझे इन सब बातों की आदत हो गयी थी , उसका नाम धीरोजा था, मई उसे धीरोजा बाई ही कहती थी, वो मुझे बहुत चाहती थी , जैसे सबके ममत्व का केंद्र मई हो गयी थी , सुबह उठके जब, आँगन में निकलती तो, धीरोजा का इस्नेह पूर्ण उपालम्भ व् कितनी ही बातें जो सबको हंसती सुनने मिलती थी, जैसे वो, हमारे पिछवाड़े के आँगन में कोई प्रातः प्रसारण का जिम्मा संभालती थी , सब, काम वाले उसकी बातें सुनके, हँसते थे , और सुबह हल्की फुलकी हो जाती थी
पीछे बाड़ी में मूंगे के पेड़ पर कौआ बोलते थे , कांव कांव, जैसे उनका वक़्त होता था हम प्रकृति के संग रहते थे
बेशक मेरा राजसी व्यवहार इन्ही से बना था, की आज भी मुझे कोई तू, कहे तो, बहुत गुस्सा भी आ जाता है , जाने क्यों
सिर्फ वे बिम्ब है, जो स्मृति में उभरते है , कौंधते है
अतीत जो, इतना ज्यादा बेफिक्र था
खैर , वंहा मुझे बहुत से किरदार मिले , सभी से स्नेह मिला
वंहा , कोई मुझे नही डांटता था, न फटकारता था
मई न तो जिद्दी थी , न ही उत्पति , उत्पत्ति उत्पाती थी ,
मुझे बुआ जी के उतने बड़े घर में अकेले खेलने की आदत हो चली थी बुआ जी की सौत , जिसे सब, छोटी कहते थे , और मेरी बुआ जी को दारुवाली बाई, अर्थात शराब के ठेके होने से ये नाम उन्हें मिला था ,
अब, जब मई थी, ठेका नही था, बुआ जी सिर्फ खेती का काम नौकरों के भरोसे करवाती थी , अर्थात कृषि कर्म भी था, और स्वभाव भी। बहुत ही साधारण रहते थे, बहुत सम्पदा के बावजूद उथलापन नही थे, ये वे गांव के थे, या तब का ये आचरण था , कि सादा जीवन था
बहुत शांति रहती थी, सुबह उठकर , जब पीछे के घर में जाती , तो, वंहा अजीब सा धुंवा महसूस होता, उस एकांतवासी घर की वो, अलसुबह आज भी मुझे महसूस होती है
बुआ जी उठकर, चाय बनाती थी, मुझे दूध पिने की आदत नही थी , हमारे यंहा एक मुनीम जी भी थे
तब, बुआ जी की सौत थी , ठीक ही था सब कुछ , वक़्त पर खेती के काम होते थे,
मई तब छोटी थी, स्कूल नही जाती थी, वंहा आँगन में एक मेहतरानी आती थी , जो मेरी धाय माँ जैसी थी , वो, मुझे देखते ही, ऐसे कोर्निश सलाम करती थी, जैसे मई राजा हूँ, मुझे इन सब बातों की आदत हो गयी थी , उसका नाम धीरोजा था, मई उसे धीरोजा बाई ही कहती थी, वो मुझे बहुत चाहती थी , जैसे सबके ममत्व का केंद्र मई हो गयी थी , सुबह उठके जब, आँगन में निकलती तो, धीरोजा का इस्नेह पूर्ण उपालम्भ व् कितनी ही बातें जो सबको हंसती सुनने मिलती थी, जैसे वो, हमारे पिछवाड़े के आँगन में कोई प्रातः प्रसारण का जिम्मा संभालती थी , सब, काम वाले उसकी बातें सुनके, हँसते थे , और सुबह हल्की फुलकी हो जाती थी
पीछे बाड़ी में मूंगे के पेड़ पर कौआ बोलते थे , कांव कांव, जैसे उनका वक़्त होता था हम प्रकृति के संग रहते थे
बेशक मेरा राजसी व्यवहार इन्ही से बना था, की आज भी मुझे कोई तू, कहे तो, बहुत गुस्सा भी आ जाता है , जाने क्यों
Subscribe to:
Posts (Atom)